बीमा का मायाजाल :-
प्रत्येक मनुष्य को अपने जीवन और भविष्य की चिंता सताती रहती है। आमतौर पर सभी अपने को असुरक्षित महसूस करते हैं।
"भविष्य में होने वाली किसी भी समस्या से ज्यादा भयावह है उसकी कल्पना!", यह बात प्रेमचंद किन्ही दूसरे शब्दों में कह गए हैं। पर हमें ये सब बातें तसल्ली नहीं देतीं। रोजमर्रा में दिखाई/सुनाई देने वाली नकारात्मक खबरें सीधे हमारे दिल पर चोट करती हैं। इसी वजह से हर व्यक्ति इस जुगत में लगा रहता है कि वह येन केन प्रकारेण अपना भविष्य सुरक्षित कर ले।
प्रत्येक मनुष्य को अपने जीवन और भविष्य की चिंता सताती रहती है। आमतौर पर सभी अपने को असुरक्षित महसूस करते हैं।
"भविष्य में होने वाली किसी भी समस्या से ज्यादा भयावह है उसकी कल्पना!", यह बात प्रेमचंद किन्ही दूसरे शब्दों में कह गए हैं। पर हमें ये सब बातें तसल्ली नहीं देतीं। रोजमर्रा में दिखाई/सुनाई देने वाली नकारात्मक खबरें सीधे हमारे दिल पर चोट करती हैं। इसी वजह से हर व्यक्ति इस जुगत में लगा रहता है कि वह येन केन प्रकारेण अपना भविष्य सुरक्षित कर ले।
बाज़ार को मनुष्य के इस भय में बड़ा अवसर नज़र आया है। पिछले दशक से "बीमा
(insurance)" एक नए और फायदे के उद्यम के रूप में उभरा है। जीवन से लेकर
कार तक, विदेश यात्रा से लेकर फसल चौपट होने तक, चिकित्सा से लेकर शिक्षा
तक .......... हर बात के लिए बीमा बिक रहा है। जितनी ज्यादा असुरक्षा, उतना
अधिक प्रीमियम! सुना है कि विदेशों में तो गला ख़राब होने से लेकर असाध्य
बीमारी होने तक, क्लास में फ़ेल होने से लेकर बेरोजगार रहने तक के लिए बीमा
बिकता है।
अब जरा अपने आसपास के परिदृश्य पर नज़र डालिये। किस तरह से हम लगभग हर दूसरी बात के लिए बीमा कराने को विवश हो गए हैं। मेरे खुद के पास - जीवन बीमा, परिवार बीमा, संतान बीमा, कार/स्कूटर बीमा, संतान शिक्षा बीमा, चिकित्सा बीमा, इलेक्ट्रॉनिक गैजेट्स की AMC इत्यादि मौजूद हैं और कमाई का एक बड़ा हिस्सा इनका प्रीमियम चुकाने में खर्च होता है।
कहने की बात यह है कि इस पूरे मायाजाल में यदि कोई मज़े काट रहा है तो वह है बीमा प्रदाता कंपनी। उसके द्वारा प्रतिवर्ष प्रीमियम से प्राप्त होने वाली मोटी रकम का बहुत छोटा सा हिस्सा उसे क्लेम के निपटारे में खर्च करना होता है, वह भी तमाम ना नुकुर और और छुपी शर्तों के अधीन। इस गोरखधंधे में सरकार का भी मूक समर्थन शामिल है अन्यथा प्रीमियम की उच्च दरों को कम करने या निर्धारित करने की बात कहीं से तो उठती?
- डॉ. परितोष मालवीय,जनवरी2018
अब जरा अपने आसपास के परिदृश्य पर नज़र डालिये। किस तरह से हम लगभग हर दूसरी बात के लिए बीमा कराने को विवश हो गए हैं। मेरे खुद के पास - जीवन बीमा, परिवार बीमा, संतान बीमा, कार/स्कूटर बीमा, संतान शिक्षा बीमा, चिकित्सा बीमा, इलेक्ट्रॉनिक गैजेट्स की AMC इत्यादि मौजूद हैं और कमाई का एक बड़ा हिस्सा इनका प्रीमियम चुकाने में खर्च होता है।
कहने की बात यह है कि इस पूरे मायाजाल में यदि कोई मज़े काट रहा है तो वह है बीमा प्रदाता कंपनी। उसके द्वारा प्रतिवर्ष प्रीमियम से प्राप्त होने वाली मोटी रकम का बहुत छोटा सा हिस्सा उसे क्लेम के निपटारे में खर्च करना होता है, वह भी तमाम ना नुकुर और और छुपी शर्तों के अधीन। इस गोरखधंधे में सरकार का भी मूक समर्थन शामिल है अन्यथा प्रीमियम की उच्च दरों को कम करने या निर्धारित करने की बात कहीं से तो उठती?
- डॉ. परितोष मालवीय,जनवरी2018
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