Monday 24 September 2018

तेज़ी से बहरे होते जा रहे समाज

हम तेज़ी से बहरे होते जा रहे समाज हैं :-
मुझे पिछले कुछ वर्षों से Tinitus है। ये वह बीमारी या अवस्था है जिसमें दिन - रात कानों में घंटी सी बजती रहती है। ठीक उसी तरह जैसे आपके पास पटाखा चल जाने के बाद कुछ देर तक चूँ...... की आवाज़ होती है। डॉक्टरों के अनुसार ये आगे चलकर बहरे होने का सूचक है।
मुझे सबसे पहले इसका पता लगभग 04 साल पहले उस समय चला था जब मैं अपने ऑफिस के शांत कमरे में बैठा था। काफी देर तक मुझे जब चूँ.... की आवाज़ सुनाई देती रही तो मैं इसे यूपीएस से आती आवाज़ समझता रहा। कुछ ही मिनटों बाद मुझे समझ आ गया कि ये आवाज़ कहीं और से नहीं बल्कि मेरे दायें कान से आ रही है। मैंने अपने कान के चिकित्सक मित्र Dranupam Mishra से संपर्क किया। उन्होंने बताया कि ये tinitus है और ये लगभग लाइलाज बीमारी है। उन्होंने मुझे इसे बर्दाश्त करने के कुछ तरीके बताये। मेरे पूछने पर ही बताया कि इसका कारण दवाओं का दुष्प्रभाव और तेज़ ध्वनि प्रदूषण हो सकता है। मुझे जाड़े की रातों में बहुत परेशानी होती है। इसके अलावा तेज़ ध्वनि में कान के परदे हिलने लगते हैं।
मेरा घर ललितपुर में बीच चौराहे पर है जो लंबे अरसे तक हाईवे भी था। दिन रात ट्रकों और वाहनों की चिल्ल-पो झेलना हमारे लिए सामान्य बात थी। रही-सही कसर सामने स्थित जरीना मोर सजावट बैंड ने पूरी कर दी जो गाहे-बगाहे अपने बैंड और डीजे का परीक्षण किया करते थे। उनकी कृपा से अल्ताफ रज़ा के कई गाने मुझे पूरे याद हो गए थे। मैं यदि ये लिखूँ कि धार्मिक उत्सवों पर चोरी की बिजली से बजने वाले लाउड स्पीकर का भी मेरे tinitus में पर्याप्त योगदान है तो इसमें अतिशयोक्ति न होगी।
अब भी मुझे ग्वालियर में सुबह शाम ऑफिस आते - जाते समय पड़ाव पुल से गुजरना पड़ता है जहाँ ध्वनि प्रदूषण मुझे बहुत परेशान करता है। शायद किसी अन्य तरह के प्रदूषण से ज्यादा। मेरे साथ चलने वाले लोग प्रायः ये शिकायत करते हैं कि मैं सड़क पर ड्राइविंग करते समय आवेशित और आक्रोशित रहता हूँ। प्रायः झगड़ता रहता हूँ। गाली देता और सुनता रहता हूँ।
मैं ये सब इसलिये लिख रहा हूँ क्योंकि मैं एक ऐसा समाज चाहता हूँ जिसमें अनावश्यक शोर न हो। सुना है सभ्य और विकसित पश्चिमी देशों में लोग बेवजह हॉर्न नहीं बजाते। पिछले साल अपने पडोसी मुल्क भूटान की यात्रा के दौरान मैंने स्वयं वहां के निवासियों की सभ्यता का अनुभव किया था। वहां के ड्राईवर भी हॉर्न सिर्फ बेहद आवश्यक होने पर ही बजाते हैं। मेरा दुःख ये है कि हमारे देश में दूर-दूर तक ये सम्भावना नज़र नहीं आती। हालात यहाँ तक बदतर हैं कि मैंने रेल के ड्राईवर को भी प्लेटफार्म पर पटरी पार कर अपनी जान जोखिम में डाल रहे लोगों को हटाने के लिए हॉर्न बजाते प्रायः देखा है।
हम चिल्ल-पों पसंद समाज हैं और दिनोदिन बहरे होते जा रहे हैं।

June 2017

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