Sunday 16 October 2011

पक्षाघात, दौरा या लकवा की पहचान / RECOGNIZING A STROKE

पक्षाघात, दौरा या लकवा की पहचान / RECOGNIZING A STROKE


पक्षाघात पहचानने के लिए याद रखें - S T R

आम आदमी के लिए पक्षाघात या Brain Hemorrhage के लक्षणों को पहचानना कठिन होता है। परंतु प्रायः यह जानकारी के अभाव में होता है। पक्षाघात को पहचानने के लिए याद रखें - S T R

उदाहरण कथा - आप किसी पार्टी या फिल्म देखने में मशगूल हैं और आपके साथ वाले व्यक्ति को एकाएक चक्कर आता है या वह गिर पड़ता है या उसकी आँखों के सामने अंधेरा छा जाता है। वह संभालने पर पुनः सामान्य हो जाता है और आप निश्चिंत हो जाते हैं। हो सकता है यह मामूली सा चक्कर हो जो कभी भी, किसी को भी कमजोरी, रक्तचाप उतार-चढ़ाव या अन्य कारणों से हो सकता है पर आपको पूर्ण सावधानी बरतते हुए S T R को याद करना है।

S
*
व्यक्ति से मुस्कारने के लिए कहें। Ask the individual to SMILE.

T
*व्यक्ति से बात करने और कोई साधारण सा वाक्य बोलने के लिए कहें। Ask the person to TALK and SPEAK A SIMPLE SENTENCE.
                          (उदाहरण के लिए - बाहर अच्छी धूप खिली है/ I.e. It is sunny out today.)
R
*उसे दोनों हाथ उठाने के लिए कहें/ Ask him or her to RAISE BOTH ARMS.

>>
यदि उसे इन तीन गतिविधियों में से एक में भी कठिनाई अनुभव हो तो उसे तत्काल डॉक्टर के पास ले जायें तथा डॉक्टर को लक्षण बतायें।
पक्षाघात पहचानने का एक अन्य तरीका -
व्यक्ति से जीभ बाहर निकालने को कहें। यदि जीभ सीधी न हो या एक ओर मुड़ी हुई हो तो यह भी पक्षाघात की निशानी है।
डॉक्टर के अनुसार -
यदि पक्षाघात के मरीज को दौरा आने के तीन घंटे के भीतर डॉक्टर के पास लाया जाए तो वह जल्द सामान्य हो सकता है तथा बड़ी मुसीबत टाली जा सकती है।
अतः याद रखें S T R
दूरदर्शन के एक पुराने विज्ञापन की पंक्तियां तो याद ही होंगी जरा सी सावधानी ज़िंदगी भर आसानी

Tuesday 11 October 2011

जगजीत सिंह

हम सभी उदास है जगजीत सिंह के निधन पर.............मुझे अब भी याद है कि 1994 में इलाहाबाद स्थित प्रयाग संगीत समारोह में जगजीत सिंह नाइट का आयोजन था, मैं भी अपने मित्रों के साथ इस अवसर का लाभ उठाना चाहता था। प्रयाग संगीत समिति का ऑडिटोरियम लगभग 1000 श्रोताओं की भीड़ से कार्यक्रम शुरू होने के 02 घंटे पहले ही भर चुका था। आयोजकों ने दरवाजे अंदर से बंद कर लिए थे। मुझ समेत 5000 विश्वविद्यालय छात्रों की भीड़ ऑडीटोरियम के बाहर हंगामा कर रही थी। पुलिस बल प्रयोग की नौबत आ गयी थी। हद तो ये हुई कि जगजीत सिंह भी ऑडीटोरियम में प्रवेश नहीं कर पाए क्योंकि संगीत समिति में प्रवेश का एक ही द्वार था। कार्यक्रम हो ही नहीं सका। पर यह इस बात का प्रमाण है कि आज के इस दौर में सिर्फ जगजीत सिंह ही ऐसे थे जिनकी संगीत सरिता सभी आयुवर्ग को अपनी स्वरलहरियों में बहा ले जाती है...यहां तक कि इंस्टैट नूडल्स वाली नवयुवा पीढ़ी को भी।

ऐसा बहुत कम होता है कि किसी सेलीब्रिटी के देहांत पर लोग मन से दुःखी हों। आमलोग फिल्मी हस्तियों के निधन को समाचारों की तरह सुनते हैं, चर्चा करते हैं और कुछ दिन बाद भूल जाते हैं। पर यकीनन जगजीत सिंह जी के साथ ऐसा नहीं है। अपने पीछे वे आसानी से न भरा जा सकने वाला निर्वात छोड़ गए हैं। व्यक्तिगत ज़िंदगी में उनके साथ कितनी भी बुरी गुजरी हो, पर उन्होंने अपनी दैवीय आवाज़ से लाखों लोगों की ऑखों को नम किया है और लाखों टूटे हुए दिलों को ज़िंदगी जीने का हौसला दिया है। ऐसे सार्थक जीवन को सलाम।

Tuesday 4 October 2011

महीने का पहला इतवार

आज शर्माइन सुबह चार बजे ही उठ गईं। महीने का पहला इतवार जो है। ब्रैड का बड़ा पैकेट और मक्खन तो शर्मा जी कल ही ले आये थे, सिर्फ ग्वाला की बर्फी ही लानी बाकी है। काम में युद्ध स्तर पर भिड़ी हुईं शर्माइन किचिन से ही चिल्लाईं - " जल्दी उठो, छै बजन वाले है। ई बार आठ बजे तक पहुँचने ही है, नहीं तो धूप हो जै। बिक्कू को भी उठा दो और पूजा भी कर लो नहीं तो भगवान बेचारे ऐसे ही बैठे रै जात। लौटत - लौटत दोपहर हो जात। भोग के लाने बर्फी अलग से रख दइयो........." । ऐसी ही और भी कई बातें जो बिस्तर पर अल्साये पड़े शर्मा जी को ठीक से सुनाई नहीं दीं।

            अप्रैल में ही प्रचंड गर्मी शुरू हो गयी थी और आज सुबह से ही अपने रौद्र रूप में थी। छह बजते - बजते पर्याप्त रोशनी हो गई । छुट्टी के दिन देर तक सोने वाले शर्मा जी भी तुरंत उठ गये और अपने साथ लेटे बिक्कू को भी जगा दिया। अगले एक घंटे तक घर में तूफान मचा रहा.............

            अंततः शर्मा जी,  शर्माइन और बिक्कू सही समय पर घर से रवाना हो गये। शहर से नवोदय विद्यालय बीस किमी.  दूर जैरवारा गाँव में था,  जहाँ आठ महीने पहले ही उनके छोटे लड़के सोनू का दाखिला कक्षा छह में कराया गया था। स्कूटर चलाते - चलाते  गर्व से भरे हुये शर्मा जी बोले - "कल ऑफिस में बात चल रही थी कि प्रधानमंत्री राजीव गांधी नवोदय विद्यालय पर खास ध्यान दे रहे हैं। देखना सोनू कितना आगे जायेगा। मैंने तो यहां तक सुना है कि बारहवीं के बाद आगे की पढ़ाई के लिये कुछ बच्चों को रूस भी भेजा जायेगा और सारा खर्च सरकार ही उठायेगी। "

            शर्माइन तपाक से बोली - "अग्रवाल जी और संध्या कौ मौ उतर गओ थो जब उन्हें पतो लगो कि हमाओ सोनू नवोदय विद्यालय प्रवेश परीक्षा में पास हो गओ है। उनको मोहित भी तो प्रवेश परीक्षा में बैठो थो। तबई से संध्या कुढ़त रहत है। देखियो हमाओ सोनू तो रूस भी जै।"
           
            स्कूटर तेजी से अपने गंतव्य की ओर भागती जा रही थी।

            शर्मा जी खाद्य विभाग में बाबू है तथा उनकी यह परम अभिलाषा रही है कि उनके बच्चे अंग्रेजी में बात करें। नवोदय विद्यालय में उन्हें अपनी यह अभिलाषा पूरी होते दिखायी दी। यह बात और है कि शर्मा जी खुद कभी "थैंक्यू" और "यस सर" से आगे नहीं बढ़ पाये थे। शर्माइन की हालत तो और भी खस्ता थी। ग्रेजुएट होने के बावजूद वे ठीक से हिंदी भी नहीं पढ़ पाती थीं एवं इस प्रकार दोषपूर्ण शिक्षापद्धति का ज्वलंत उदाहरण एवं चलता फिरता दस्तावेज़ थीं।

            मनुष्य का मन भी बड़ा विचित्र है। उसे वह हर चीज आकर्षित करती है जो उसके पास नहीं है। यह जरूरी नहीं कि उसकी यह आकांक्षा आवश्यकता जनित ही हो। कई बार उसे अमुक चीज सिर्फ इसलिये ही अत्यावश्यक प्रतीत होती है कि वह दूसरे के पास है।  इस भौतिकतावादी युग में बाजार का अर्थशास्त्र काफी हद तक इसी आकर्षण पर निर्भर करता है। शिक्षा का क्षेत्र भी इससे अछूता नहीं है। बच्चों को फर्राटेदार अंग्रेजी बोलते हुए देखना आम मध्यवर्गीय परिवार को भावविभोर कर देता है, भले ही उसे अन्य विषयों का ज्ञान हो या न हो। अंग्रेजी के प्रति इस आकर्षण की जड़ें काफी गहरी हैं तथा अंग्रेजी उपनिवेशकाल तक जाती हैं। इस दौर में आम मध्यवर्गीय परिवार अपने बच्चों की पढ़ाई को लेकर ज्यादा जागरूक हो गये हैं या यह कहें कि सनक की हद तक संवेदनशील। बच्चों की पढ़ाई के लिये कितना भी खर्च उन्हें ज्यादा नहीं लगता। उनके मध्य यह धारणा सर्वमान्य है कि स्कूल जितना मंहगा होगा, बच्चा उतना ही होनहार होगा। आखिर बच्चे के भविष्य और उनकी शान का सवाल है........     

              
            सोनू के भविष्य के प्रति आश्वस्त शर्माजी बड़े प्रसन्नचित्त भाव से स्कूटर दौड़ाते जा रहे थे। शर्माइन अपने लाड़ले बच्चे को महीने भर बाद देखने के लिये उतावली हो रहीं थीं। बिक्कू को स्कूटर पर इतनी दूर तक घूमना ही अच्छा लग रहा था तथा उसे यह भी इंतजार था कि सुनसान रास्ते पर थोड़ी देर के लिये स्कूटर चलाने को मिलेगी। यानि पूरा परिवार अपने - अपने कारणों से प्रसन्नचित्त था।

            इधर सोनू की हालत भी कुछ ऐसी ही थी। महीने भर बाद उसे आज ही के दिन तो घर का खाना नसीब होता है, वो भी उसकी पसंद का। आज वह भी सुबह चार बजे ही उठ गया था। दस वर्ष का सोनू इन आठ महीनों में घर से दूर रहकर ज़िंदगी के कई सबक सीख गया था। सुबह जल्दी उठकर फालतू काम निपटाकर मुख्य काम के लिये पूरी तरह तैयार रहना इनमें से एक था। और आज का मुख्य काम था, घर वालों से मुलाकात तथा घर का नाश्ता। वैसे महीने के पहले इतवार को सभी बच्चों में यह होड़ होती है कि कौन सबसे पहले तैयार होता है तथा किसके मम्मी-पापा सबसे पहले आते हैं।

            मुलाकात का समय भी आठ से बारह बजे तक निर्धारित था,  कुछ - कुछ जेल की तरह। पुरानी कहावत कि " नया मुल्ला प्याज़ ज्यादा खाता है " , नवोदय विद्यालय के  शिक्षकों पर अक्षरशः लागू होती थी। अनुशासन के सख्त होने का जितना अधिक दिखावा किया जायेगा, विद्यालय की धाक उतनी ही अधिक जमेगी। और यह ग़लत भी नहीं था क्योंकि शर्माजी अपने मित्रों को यह बताते हुये गर्व से भर जाते थे कि नवोदय विद्यालय का " डिसीपिलिन "  बहुत अच्छा है।

            भारतीय संदर्भ में अनुशासन की परिभाषा डंडे से शुरू होती है, यानि अनुशासन लागू करने तथा बनाये रखने के लिये डंडा या उससे जनित ख़ौफ़ ही एकमात्र माध्यम है। यह प्रयोग यहाँ भी पूर्ण सफल था।

            सोनू की निगाहें सात बजे से ही दरवाजे पर टिकी थीं। सोनू के साथ - साथ जसबीर और मनीष भी ऐसे ही उतावले दिख रहे थे। क्योंकि बीस बच्चों में सिर्फ ये तीन ही शहर के थे। बाकी सभी बच्चे घोर ग्रामीण पृष्ठभूमि के थे, ज्यादातर निर्धन किसानों के। आखिर नवोदय विद्यालय की स्थापना ही गांव की प्रतिभाओं को खोजने एवं तराशने के महान उद्देश्य के लिये की गई थी।

            चूंकि यह पहला बैच था अतः गाँव के पुराने पंचायत भवन के दो कमरों को छात्रावास के लिये तथा खस्ताहाल प्राइमरी स्कूल को अध्यापन के लिये प्रयोग किया जा रहा था। भोजन व्यवस्था गांव के ही कल्लू हलवाई के पास थी जिसका झोपड़ा विद्यालय परिसर के पास ही था। सोनू को पिछले साल अगस्त में दाखिला मिला। इस दाखिले के लिये उसने जिला स्तरीय परीक्षा उत्तीर्ण की थी जिसमें तीन चार सौ बच्चों में शहर से सिर्फ तीन बच्चे ही चुने गये थे। नवोदय विद्यालय में दाखिला लेने का उसका उत्साह पहले दस दिनों में ही ठंडा हो गया । नवोदय में दाखिले के साथ ही सोनू के लिए कष्ट और संघर्ष का दौर शुरू हो गया।

            सबसे पहला संघर्ष था, भोजन। कहां घर का खाना जिसे वह तमाम डांट - फटकार के बाद भी ना-नुकुर करके खाता था, कहां उसे नाश्ते में दूध-दलिया और अंकुरित चने, दोपहर के खाने में लालमिर्च के तड़के वाली दाल और ठंडी,  मोटी और अधजली रोटी चबानी पड़ती थीं। राशन का चावल कैसा होता है, उसे यहीं पता चला। वह रो भी तो नहीं सकता था वर्ना मिश्रा सर की पिटाई का अंदेशा था। दूसरा संघर्ष था,  अगस्त की उमस भरी गर्मी में झोपड़ीनुमा कमरे में बिना पंखे के रातें गुजारना। कष्ट तो और भी थे....................पर इन तीन शहरी बच्चों को छोड़ दें तो अन्य बच्चों को खाने-पीने और सोने का कोई कष्ट नहीं था। कम से कम दो वक्त का खाना और सोने के लिये पक्का फ़र्श तो मिला। पर उनके लिये छह घंटे तक पढ़ाई और दिनभर की उछलकूद पर प्रतिबंध ही सबसे बड़ा कष्ट था।

            सितंबर महीने के पहले इतवार को जब सोनू मम्मी से मिलकर फूट-फूट कर रोया और घर जाने की जिद करने लगा तब एक बार तो शर्माजी भी सोचने को विवश हो गये कि बच्चा इतने कष्ट में कैसे रह पायेगा। शर्माइन को भी सोनू की पीठ पर हो गयी घमौरियों ने व्यथित कर दिया।
            सोनू के सिर पर हाथ फेरती हुईं वे बोलीं - "देख तो मोड़ाऐ कितनी घमौरिया हो गईं हैं। प्रिंसपल साब से पूछो कि इके लाने घर से टेबलफैन भेज दें।"
शर्माजी ने कुछ अनमने मन से प्रिंसिपल जोशी के पास पहुँचे और धीरे से फुसफुसाये - मैं एस. एस. शर्मा, सोनू का...........

जोशी - हाँ -हाँ, जानता हूँ! सोनू से मुलाकात हो गई?

शर्माजी - हाँ.....हो तो गई। पर उसे काफी घमौरियाँ हो गईं हैं। मैं सोच रहा था कि उसके लिए घर से टेबल फैन भेज दूँ। उसे बचपन से ही गर्मी कुछ ज्यादा लगती है। 

जोशीजी ने नैतिकता में भीगी हुई डांट पिलाते हुए कहा - कैसी बात करते हैं आप ! आपने यह सोचा है कि बाकी बच्चों पर इसका क्या प्रभाव पड़ेगा। वे हीनभावना का शिकार हो सकते हैं। और फिर बच्चों को जैसी आदत डाल दो, वे वैसे ही रहने लगते हैं।

शर्मा जी ने और बहस करना उचित नहीं समझा। शर्माइन उनका लटका मुँह देखकर समझ गईं कि काम नहीं बना। शर्मा जी ने सोनू को ही दिलासा दी कि कुछ ही दिन में नया छात्रावास बनने वाला है, तब वहां पंखा भी होगा। आखिर सोनू के भविष्य के संवरने का सपना उसकी जिद पर भारी पड़ा। उस दिन बड़े उदास मन से शर्मा दम्पति घर लौटे।

इस बीच नौ महीने गुजर गए। सोनू का कष्ट तो अभी भी अपनी जगह पर ही था लेकिन अब उसका एहसास और अभिव्यक्ति कम हो गई थी। आखिर "दर्द का हद से गुजरना है दवा हो जाना"। अब वह मम्मी-पापा से मिलकर रोता नहीं है।

            घर से भेजी हुई मोटी सी रजाई और एक कमरे में बीस बच्चों की मौजूदगी में जाड़े की कुछ रातें तो आराम से कट गयीं, पर बाद में सभी बच्चों में खुजली फैल गयी थी। जिसकी पुष्टि गांव के डॉक्टर ने साप्ताहिक चैकअप के दौरान की। 

            आखिर सोनू का इंतजार खत्म हुआ। उसे दूर से ही स्कूटर दिखायी दे गई। वह दौड़कर दरवाजे तक पहुंचा। अभिभावकों से मुलाकात शिक्षकों की निगरानी में ही होती थी। जब सभी बच्चों के अभिभावक आ गये तो भीड़भाड़ में मौका पाकर शर्माइन ने पहले से मक्खन लगी ब्रैड का पैकेट और बर्फी का डिब्बा सोनू को थमा दिया जिसे सोनू दौड़ कर अपनी अल्मारी में छुपा आया।

वापस आकर सोनू ने धीरे से कहा - मम्मी! अगली बार ब्रैड मत लाना।
शर्माइन - काये?
सोनू - ऐसे ही।
शर्माइन - सई बताओ का बात है।
सोनू - पिछली बार जब मैं शाम को जब ब्रैड खा रहा था तो मिश्रा सर ने पकड़ लिया था और.....
और का??...मिश्राइन जोर से बोलीं।
सोनू धीरे से डरते हुए बोला -फिर.......उन्होंने मुझे मारा और मुर्गा बना दिया ।

 इतनी बात सुनकर शर्माइन तिलमिला गयीं। वे शर्माजी से भुनभुनाकर बोलीं - " एक तो मोड़ाये ठीक से खान-पियन कौ नई देत ऊपर से मारत हैं। आन दो ऊ मिश्रा खों, अबई देखत"

            मिश्रा सर के पास आते ही शर्माइन तमतमाकर बोलीं - " तुमाये अबई बाल बच्चा नईयां, नई तो पतो चलतो कि मोंड़ाये दूर भेजन में कित्तो कष्ट होऊत। ऊकी पढ़ाई को मामलो नई होतो तो ई भुच्च देहात में कभ्भऊं नहीं रैन देती। बाकी मोंड़न को का, उनके घरे तो खाबे के लाले परे, पर हमाये सोनू को ऐसे खाने की आदत नईयां। तुम होउत को हो उये मारन बारे।"

            मिश्राजी एक तो वैसे ही क्रोधी छवि के थे, ऊपर से बाकी अभिभावकों के सामने अपनी स्थिति बिगड़ती देख आपा खो बैठे - "इतना ही दुलारा है तो इसका नाम कटा लीजिये। जो है सो,  हम कोई आपके नौकर नहीं हैं जो आपके बच्चे की सेवा करते फिरें। और हाँ, जिस खाने की बात को लेकर आप इतना भलाबुरा कह रही हैं, तो अब सुन ही लीजिये कि आपका लाड़ला पाँच दिन की बासी फफूँदी लगी ब्रैड छुपाकर खा रहा था। अच्छा हुआ कि मैंने देख लिया नहीं तो यह इल्ज़ाम भी लगता कि खाने में ज़हर खिला दिया।" अपनी बात समाप्त करते - करते उन्होंने गुस्से से सोनू को घूरा।

            कुछ पल पहले ही खुश लग रहा सोनू सकपका गया और बोला - "अब नहीं खाऊंगा।" 
            इस गर्मागर्मी का पटाक्षेप कल्लू हलवाई की आवाज से हुआ - " अरे भैनजी खान पियन के लाने काहों परेशान हो रहीं हों, सबरे मोड़ा जोई या खाऊत।"
            बिक्कू को दोने में हलवा देते हुये कहा - "देखो आज  इतवार खों सबके लाने हलुआ बनो है"
           
            बिक्कू ने एक ही चम्मच हलवा खाकर दोना फेंक दिया -" हुँह! ये हलवा है कि चावल की लेई। मालूम है सोनू! मेरी परीक्षायें खतम हो गयीं हैं और पापा घर पर एक महीने के लिये वीडियोगेम ले आये हैं। और मम्मी ने मुझे नया बल्ला भी दिलाया है। जब तू छुट्टी पर घर आयेगा तो साथ में खेलेंगे।"

            मुलाकात का वक्त जल्द ही गुजर गया। आज की लड़ाई के बाद मिश्राइन ज्यादा चिंतित हो गयीं। लौटते समय स्कूटर पर पीछे से ही बोलीं - "ऐसो नईं हो कि वो मिश्रा हमाये पीछै सोनू से दुश्मनी काड़े।"

            शर्माजी - "जब हमारे सामने इतना गुस्सा हो रहे थे तो हमारे पीछे क्या करते होंगे। पर क्या करें हमें उसका भविष्य भी तो देखना है। और तुमसे किसने कहा था लड़ने को।"

            अगले ही हफ्ते सोनू की चिट्ठी आयी -

आदरणीय मम्मी - पापा
                 चरण स्पर्श

            आगे समाचार है कि मेरी पढ़ाई ठीक चल रही है। उस दिन आप लोगों के लौटने के बाद मिश्रा सर ने मुझे फिर मारा और हाथ ऊपर करके खड़ा कर दिया। बिक्कू भैया ने जो हलवा का दोना फेंक दिया था, वो भी साफ कराया। पर आप लोग चिंता नहीं करना। मैंने आप लोगों की ओर से भी माफी मांग ली है। पर शाह सर बहुत अच्छे हैं, वो मुझसे अच्छी तरह बात करते हैं। उन्होंने मुझे बॉलीबॉल टीम का कप्तान बना दिया है और कल रात को उन्होंने मुझे अपने घर में पंखे में सुला लिया था।

            आगे समाचार यह है कि कल से परीक्षा शुरू हो रही है। परीक्षा के बाद कक्षा 7 की पढ़ाई शुरू हो जायेगी और गर्मियों की छुट्टी अब 15 मई को होगी। अगली कक्षा की किताबें भी आ गई हैं। अगले महीने जब आप लोग आना तो मेरे लिये एक मच्छरदानी और छोटी सुराही लेते आना। साथ में दो सोवियत नारी भी ले आना। जिल्द चढ़ानी है।
            बाकी सब ठीक है।
                                                                                                            आपका सोनू

            पत्र पढ़ते ही शर्माजी ने खूंटी पर टगी शर्ट को पहनते हुए कहा - मैं सुराही लेने जा रहा हूँ। घर के लिए भी कुछ लाना है? 

            और शर्मा परिवार अगले महीने के पहले इतवार की तैयारी में जुट गया...

बिटो तू जा ............लला को भेजना


आज तो तुम्हें बताना ही होगा माँ........... मैं नहीं मानूँगी। इस दिन का इंतजार मुझे कई दिनों से है। मुझे आज अपने बर्थडे पर आपसे और कुछ नहीं चाहिए।”  - श्रेया आज सुबह से ही जिद पकड़ कर बैठी थी।

       कहा तो है तुझे कि बता दूंगी। आज मेरी मुनिया 18 साल ही हो गयी है। जा अपने दोस्तों के साथ मॉल घूम आ। ये कहानी तो मैं तुझे कभी भी सुना दूंगी- उमा ने समझाने की कोशिश करते हुये कहा।

  बिल्कुल नहीं....... आज आपको अपना वायदा निभाना ही होगा। पिछली बर्थडे पर आपने मुझे प्रॉमिस किया था कि जब मैं 18 साल की हो जाऊँगी तो आप मुझे सब कुछ बता देंगी।

       श्रेया को जिद पकड़ते देख एवं अपने वायदे को याद करती हुई उमा बोली  - ठीक है! आज शाम को मैं तुझे सब कुछ सुनाऊँगी। पर पहले तू अपनी सहेलियों के साथ अपना बर्थ डे तो मना ले। श्रेया कुछ संतुष्ट हुई।

       शाम होते ही अपनी समस्त जिज्ञासाओं के साथ वह किचन में चुपचाप अपनी माँ के पास जाकर खड़ी हो गयी। उसका इरादा भांपकर उमा ने उससे कहा कि रात के खाने के बाद ही वह उससे बात करेगी। श्रेया को यह भी मंजूर था।

       रजाई अपने पैरों पर डालती हुई उमा बोली - बता क्या जानना चाहती है ?

       सब कुछ ...... मतलब..... पापा के बारे में, तुम्हारे ससुराल के बारे में, और यह कि...... तुम अकेली कब से रह रही हो..... और हमारा परिवार बाकी लोगों की तरह क्यों नहीं है?

       उमा भी आज श्रेया को सब कुछ बताने के लिए तैयार थी। गंभीर स्वर में उमा ने बताना शुरू किया - मैं भी तुझे सब कुछ बताना चाह रही थी। पर तू मुझे हमेशा छोटी ही लगती रही। पर अब सोचती हूँ कि ऐसे तो तू मुझे हमेशा ही छोटी लगेगी। अब तू एम.बी.बी.एस. की पढ़ाई के दूसरे साल में है। इसलिए आज मैं तुझे सब कुछ बताऊँगी। हो सकता है कि तू मुझे गलत समझने लगे और मेरे निर्णय को गलत ठहराये। पर सब कुछ जानना तेरा अधिकार है।

       कुछ देर ठहरकर उमा फिर से कहना शुरू करती है - तेरे नाना-नानी ने मुझे अपने बेटों की तरह ही पाला - पोसा। बेटों के ही समान शिक्षा दिलाई। हालांकि वे मेरे नौकरी करने के खिलाफ थे। बी.एड. करते समय ही मेरा विवाह तय हो गया था। मेरे बहुत रोने-धोने का इतना असर हुआ कि शादी की तारीख बी.एड. परीक्षा के बाद की तय हुई। तुम्हारे दादाजी किशनगढ़ गाँव के सरपंच थे। अच्छी खेतीबाड़ी और जमींदारी थी। तेरे पापा अपने पाँच भाइयों में सबसे छोटे थे। मैं भी खुश थी। जितना भी समय मिल पाता मुझे तेरे पापा के साथ बात करने में अच्छा लगता था। संयुक्त परिवार होने के कारण सभी बहुऐं एक साथ चौका बर्तन करती थीं। साल भर भी नहीं बीता था जब मेरी पहली संतान होने को थी। गर्भ के नौंवे महीने की शुरूआत में गोद-भराई की रस्म के समय तुम्हारी दादी ने गोद डालते हुए कहा - लल्ला ही देना!’ मैं भी अपने बच्चे का इंतजार कर रही थी। मुझे आज भी याद है कि गाँव की ही एक दाई ने घर में प्रसव कराया था। मैं इतने भयंकर दर्द से गुजरी कि डिलेवरी होने के बाद कुछ समय तक नीम बेहोश रही। मुझे बाद में बताया गया कि मेरी पहली संतान, जो एक लड़की थी, मरी हुई पैदा हुई थी। तेरी दादी ने कुछ दिन बाद मुझे दुःखी देखकर कहा कि कोई लल्ला थोड़े ही था जो इतना रो रही हो।

       अगले ही साल मुझे दूसरी संतान हुई और मैंने पहली बार उसका रोना सुना। मैं पूछना चाहती थी कि क्या हुआ है। पर सास का बुझा हुआ चेहरा देखकर यह समझ गई कि मैंने फिर एक लड़की को ही जन्म दिया है। कुछ देर बाद मुझे यह बताया गया कि बिटो के फेंफड़े में पानी रह गया था। साँस ले पाने के कारण चल बसी। मैं बुरी तरह छट-पटाकर रह गयी थी। मैं कुछ दिन तक यही सोचकर अपने आप को दिलासा देती रही कि शायद नियति को यही मंजूर था।  तीन महीने बाद ही तेरी ताईजी को प्रसव से गुजरना पड़ा। उस कमरे में मेरा जाना मना था। पर मैंने नवजात की किलकारी सुनकर उत्सुकतावश छज्जे से झाँककर देखा तो तेरी दादी उस नवजात के मुँह में तम्बाकू का घोल डाल रही थी ...... कहते-कहते उमा फफ़क़ कर रो पड़ी।

       श्रेया को अब भी कुछ समझ में नहीं आया। आँसू पोंछते हुए रुधे गले से बोली - तम्बाकू ! पर क्यों ! आखिर दादी ऐसा क्यों कर रही थीं ?.......और बच्चे का क्या हुआ?

         बिटो तू जा ......लला को भेजना ......ये शब्द आज भी मेरे कानों में गूँजते रहते हैं। बेचारी नवजात थोड़ा सा कसमसाई और चल बसी। मैं घुटकर रह गयी। कई दिनों तक किसी से बात करने की तो हिम्मत हुई इच्छा।

       तुमने पापा से कुछ नहीं कहा ? - श्रेया ने रोते हुए कहा।

       तेरे पापा से तो मुझे बात करने का मौका ही कब मिलता था। सबके सामने वे मुझसे बात नहीं करते थे। देर रात तक घर का काम निपटाने के बाद ऐसा कई बार होता कि तेरे पापा सो चुके होते थे। कुछ दिन बाद हिम्मत जुटा कर मैंने उन्हें सब कुछ बता दिया। उस समय मुझे बहुत धक्का लगा जब तेरे पापा ने मुझे समझाने मनाने के बजाय धमकाया कि मैं यह बात फिर कभी अपनी जुबान पर लाऊँ।

       समय गुजरता गया और धीरे-धीरे यह बात मुझे पता चल चुकी थी कि नवजात लड़कियों को जन्म लेते ही मार देने का जघन्य पाप प्रायः गाँव के हर घर में होता था। मेरा दम घुटने लग गया था। जो ससुराल मुझे अपने मायके जैसी ही लगती थी अब मुझे जेल जैसी लगने लगी थी। सभी लोग मुझे हिंसक पशुओं की तरह लगने लग गये थे। कहते-कहते उमा का गला सूख गया।

       श्रेया ने पानी देते हुए पूछा - पर आखिर दादी ऐसा करती क्यों थीं? वो भी तो आखिर एक महिला थीं।

       उमा ने थोड़ा सोचते हुए कहा - पहले मुझे भी यह समझ नहीं आया कि आखिर कोई महिला ऐसा कैसे कर सकती है। मुझे तुम्हारी दादी में एक जघन्य अपराधी की छवि दिखने लगी थी। मैं उनसे इतना डरने लग गयी थी कि उनके सामने जाते ही काँपने लगती थी। मुझे कई साल लग गये यह समझने में कि तेरी दादी ने जो किया वह तो सिर्फ अभिव्यक्ति थी, उसका मूल विचार तो नेपथ्य में था। शायद तेरी दादी भी ऐसा करने को विवश थीं। जन्म से लेकर मरने तक हमारे समाज में महिलाओं को जितनी बंदिशों का सामना करना पड़ता है, शायद उसी अंतहीन कष्टों की श्रृंखला से नवजात बच्ची को छुटकारा दिलाना उनका उद्देश्य रहा हो। ......... पर मैं आज तक इस बारे में ठीक से कुछ नहीं जान पायी हूँ।

       मैं नहीं मानती कि दादी विवश रही होंगी। किसी की हत्या को किसी हालत में जायज नहीं ठहराया जा सकता और अगर ऐसा करने को वे मजबूर थीं तो इस घृणित काम को घर का ही कोई पुरूष क्यों नहीं कर सकता था। वहीं क्यों ? - श्रेया गुस्से में तमतमाते हुए बोली।

       अगले ही पल अपने को संयत करते हुए उसने पूछा - फिर क्या हुआ ?

       मैं फिर गर्भवती हुई। दिन-रात सोचती रहती कि अपनी आने वाली संतान को कैसे बचा पाऊंगी। तू होने को थी कि रक्षाबंधन के लिए तेरे नाना मुझे विदा कराने गये। तेरे नाना ने पिछली दो नवजात मौतों का हवाला देते हुए कहा कि अगली संतान शहर में पैदा होनी चाहिए ताकि जीवित रह सके। उनका विरोध कोई नहीं कर सका। आखिर उनके पास बहाना ही क्या था। मैं इस बार अपने मायके जाते क्त शायद सबसे ज्यादा खुश थी। विदा करते समय भी तेरी दादी ने मेरे कान में कहा कि - लल्ला ही लेकर लौटना

       मैं उस जेल से बाहर चुकी थी। तेरा जन्म मेरे जीवन में नई खुशियाँ लेकर आया। मैं तुझे अपनी गोद में पाकर खुश थी। बस एक ही ग़म था कि तेरे पापा तुझे देखने नहीं आये थे। लड़की के जन्म का समाचार पाकर उस घर से कोई तुझे देखने नहीं आया। तेरे नाना ने बात संभालने की कोशिश की थी पर वे भी खाली हाथ लौटे। पता नहीं उनके साथ क्या सुलूक किया गया था कि लौटकर आते ही उन्होंने मुझे कह दिया कि अब मुझे उन्हीं के पास रहना होगा।

       मैंने कई वर्ष तेरे पापा का इंतजार किया पर वे नहीं आये। मुझे शायद आज भी उनका इंतजार है। कुछ दिन बाद मुझे यह नौकरी मिल गयी। तेरे नाना-नानी के गुजरने के बाद से मैं इस घर में रह रही हूँ। आज 18 वर्ष हो गये...... मैं अपने ससुराल गयी वहाँ से कोई मेरी सुध लेने आया। मैंने भी यह ठान लिया था कि ऐसे ससुराल और पति के होने से अच्छा यह है कि मैं सारा जीवन अकेले ही गुजार लूँ। पता नहीं मैंने सही किया या गलत पर तुझे अपनी आँखों के सामने बड़ा होते देखना मुझे हर ग़म भुला देता है। तुझे अब तक ये बातें इसलिए नहीं बतायीं थी कि कहीं तुम भी मुझे गलत समझ बैठो।.....उमा ने भरभराये हुये गले से कहा।

       श्रेया अब और कुछ जानना नहीं चाहती थी। उसके मुँह से शब्द भी नहीं फूट रहे थे। उसने धीरे से अपनी माँ की गोद में सिर रख दिया........

            22.09.2011