Monday 24 September 2018

जाति, धर्म, लिंग, राष्ट्र के बंधनों से मुक्त व्यक्ति ही मुझे प्रभावित करते हैं।

मेरा मानना है कि बड़े लोगों (रसूखदार, धनाढ्य या सेलिब्रिटी) को उनके बड़े काम से नहीं बल्कि उनके छोटे - छोटे कार्यों से परखना चाहिए। इसके उलट छोटे और सामान्य जन को उनकी छोटी-बड़ी अभिलाषाओं से नहीं बल्कि उनकी नीयत या त्याग भावना से परखना चाहिए।
इसके बावजूद इंसान इतनी विचित्र रचना है कि प्रतिपल उसका स्वभाव बदलता रहता है। उसकी इच्छाएं, नीयत, तथा कार्य करने का तरीका उसके सामाजिक व्यवहार को तय करती हैं। इसके अलावा आदमी को उसकी संगत एवं अभिरुचियों से भी पहचाना जा सकता है। उसकी मित्र मंडली में कौन लोग शामिल हैं, तथा खाली वक़्त में वह क्या करता है, यह अपनेआप में इसके व्यक्त्वि को खोलकर रख देता है। यह भी ग़ौरतलब है कि फेसबुक पेज भी किसी के व्यक्तित्व का परिचायक है। वह किन विचारों का पोषण करता है, तथा उसकी सोच कैसी है, इसकी एक झलक उसके सोशल मीडिया पेज से पता चल जाती है।
जहाँ तक मेरी बात है, मैंने अपने आसपास के इंसानों को परखने के लिए कुछ कसौटियां तय कर रखी हैं -
1. वह मुझसे कैसा व्यवहार करता है, ये जरूरी नहीं, वह मेरे सामने अन्य लोगों, विशेषकर कनिष्ठ लोगों से कैसा व्यवहार करता है?
2. उसकी अभिरुचि क्या है? धन अर्जन को ही अपने जीवन का अभीष्ट समझने वाले मुझे प्रभावित नहीं करते।
3. क्या वह अपनी जाति/धर्म से ऊपर उठकर सोच पाता है? मुझे वे सवर्ण पसंद नहीं जो दलितों को हीन मानें और सिर्फ अपने ही हित को साधें। साथ ही मुझे हर बात में अपने को दलित और बेचारा घोषित करने वाले भी पसंद नहीं।
4. मुझे वे हिन्दू भी प्रभावित नहीं करते जो किसी अन्य धर्मावलंबी से नफरत करते हों। अन्य धर्मों के अनुयायियों पर भी यही बात लागू है।
कहने का मतलब ये है कि आप परिपक्व तभी कहलायेंगे, जब जाति, धर्म, लिंग, राष्ट्र से ऊपर उठकर मनुष्य बनेंगे। इन बंधनों से मुक्त व्यक्ति ही मुझे प्रभावित करते हैं।

सि‍तंबर 2018

पंडित जी (प्रोफेसर ओ.पी.मालवीय) को आखि‍री वि‍दाई

इलाहाबाद के उनके घर के बड़े से अध्ययन कक्ष में मार्क्स और लेनिन के साथ ही महात्मा गाँधी, तुलसीदास और विवेकानंद की तस्वीरें फ्रेम में जड़ी हुई थीं। कमरे की दीवारों पर सजीं सैकड़ों पुस्तकों को पलटते हुए कभीकभार 100/- रुपये का नोट भी मिल जाता था।
कहने को तो पंडित जी (प्रोफेसर ओ.पी.मालवीय) इलाहाबाद विश्वविद्यालय में अंग्रेजी विषय के प्रोफेसर थे। पर संस्कृत, इतिहास, हिंदी साहित्य पर भी उनका उतना ही अधिकार था।
उन्होंने अपने जीवन के 40 वर्ष गुजर जाने के बाद शास्त्रीय संगीत सीखना शुरू किया था। मेरे इलाहाबाद पहुंचने तक वे पारंगत शास्त्रीय गायक बन चुके थे। वे निश्चय ही वामपंथी थे। प्रगतिशीलता किसे कहते हैं, उनका जीवन देखकर ही समझा जा सकता है। इलाहाबाद के दक्षिणी भाग में, जहां उनका निवास था, सैकड़ों वृक्ष उन्होंने लगाकर बड़े किये। हम सभी छात्र उनके नेतृत्व में सुबह-शाम दरियाबाद के कब्रिस्तान में पेड़ों को पानी डालने जाते थे। पंडित जी ने उस कब्रिस्तान में ऐसी हरियाली ला दी कि आसपास के लोग वहाँ टहलने आने लगे थे। पंडित जी उस कब्रिस्तान को गुलिस्तान कहते थे। उनकी आय का एक बड़ा हिस्सा सामाजिक सरोकारों पर खर्च होता था।
इत्तफ़ाक़ से जिस दौर में मैं इलाहाबाद अध्ययन हेतु पहुंचा था, वह दौर बाबरी कांड के बाद साम्प्रदायिक आग में झुलसा हुआ था। इलाहाबाद में साम्प्रदायिक माहौल को बचाये रखने और शांति स्थापित करने में पंडित जी की सक्रिय भूमिका थी। मुस्लिम उन्हें इज़्ज़त की निगाह से देखते थे।
आज मैं जिस हैसियत पर हूँ, वह सब पंडित जी की दी हुई है। ललितपुर से कच्ची मिट्टी जैसा गया था, पंडित जी ने उसे सांचे में ढाल कर आकार दिया। माता-पिता ने तो मुझे जन्म ही दिया था, पंडित जी ने मनुष्य बनाया। 06 वर्ष उनके सानिध्य में रहा। उन्हें स्कूटर पर बैठा के पूरा इलाहाबाद नापता था। वे जिस गोष्ठी में जाते, मैं उनके साथ रहता। उनके सानिध्य में ही रंगमंच से परिचित हुआ। न जाने क्या-क्या देखा, समझा, सीखा। उनका साथ रोज़ किसी नई पुस्तक को पढ़ने जैसा होता।
कल शाम उनका फोन आया था। वे पिछले चार-पाँच दिन से मुझसे बात करना चाहते थे। फोन मिलते ही बोले कि 'मैं तुम्हारी पोस्ट देखता रहता हूँ और पर्यावरण प्रदूषण के प्रति तुम्हारी चिंता देखी। मुझे बहुत खुशी है। मुझे जुकाम है इसलिए ज्यादा बात न कर पाऊँगा। खुश रहो। " मुझे क्या पता था कि वे जाते-जाते मुझे आशीर्वाद देना चाहते थे।
आज रात पंडित जी 85 वर्ष की आयु में इस संसार से अलविदा हो गए हैं। वे देहदान का संकल्प लेकर गए हैं। मुझे नहीं पता कि ऐसा क्या कम हो गया है मुझमे। पर दिल भारी है। उनके बाद वे वृक्ष ही साया हैं जो उन्होंने रोपे थे। ....
पंडित जी अंतिम प्रणाम आपको......आपका शतांश बन सका तो ये जीवन सफल समझूंगा।

 17 सि‍तंबर 2018

जलाशयों में विसर्जित की जाने वाली प्रतिमाएं

सौभाग्य से पूरे देश भर में इस वर्ष अच्छी बारिश हो गयी है। ग्वालियर जैसा अल्पवृष्टि वाला इलाका भी हरियाली की चादर ओढ़े हुए है। नदी-तालाब-बांध-पोखर भरे हुए हैं।
अब त्योहारों का मौसम आ गया है। यहीं से मेरी चिंता शुरू होती है। जगह-जगह पी ओ पी से बने गणेश जी बिक रहे हैं। प्रशासन की चेतावनी के बावजूद पी ओ पी के गणेश जी बन और बिक रहे हैं। कुछ ही दिनों में ये सारी प्रतिमाएं आस-पास के सभी जलाशयों में विसर्जित कर दी जाएंगी। पूरी बेशर्मी से हम जलाशयों को तबाह करके आएंगे। जो थोड़ी कसर बचेगी, वो अगले माह "माता जी" की प्रतिमाएं पूरी कर देंगी।
भस्मासुर बने इंसान को कौन समझा सकता है भला? वैसे भी मामला इन दिनों संख्याबल से तय होता है। दो-चार अर्बन नक्सली टाइप बुद्धिजीवी कितना भी चीख लें, इन जलाशयों में विसर्जित की जाने वाली प्रतिमाएं हर वर्ष बढ़ती ही जा रही हैं।
जब तक थक नहीं जाता, हर साल इस कुप्रथा की आलोचना करता रहूँगा। आप लोग भी हर साल की तरह मेरे विधर्मी और नास्तिक होने की आलोचना कर सकते हैं।

- सि‍तंबर 2018

आस्तिक को सब पहले से पता है

आस्तिक को सब पहले से पता है, उसके पापा बता गए हैं। उसे बचपन से ही सब पता है।
नास्तिक बचपन से ही पढ़ने में कमज़ोर रहा। उसके पापा भी उससे बात ही नही करते थे सो वह बड़ा होकर भी संदेह के घेरे में है।
आस्तिक को सब पता है सो वह प्रसन्न है। उसे कोई दुःख नहीं है। वह हर समय अपने आप को परमात्मा की गोद मे बैठा हुआ पाता है।
नास्तिक को कुछ नहीं पता, वह अभी पहली कक्षा में है। पढ़ाई में अच्छा निकला तो स्नातक उपाधि धारी नास्तिक बन सकता है। पर बेचारा परेशान है, इस विषय को पढ़ाने के लिए गुरु जी ही नही मिल रहे। एक मिले थे जो कक्षा में बड़ी-बड़ी फेक रहे थे, सोमवार को पिंडी पर जल चढ़ाते हुए पकड़े गए।
आस्तिक को लोक का भी ज्ञान है, परलोक का भी। उसे पता है कि स्वर्ग में अप्सराएं मिलेंगी और नरक में तेल के कढाये। उसे पता है कि स्वर्ग में अमृत बटता है और नरक में दारू - जुए के अड्डे हैं। आस्तिक इसलिए हमेशा स्वर्ग ही जाना चाहता है। बल्कि जुगाड़ में रहता है कि सीधे मोक्ष का ग्रीन कार्ड बन जाये।
नास्तिक ससुरा कुछ तय नहीं कर पाता। उसे कामुक अप्सराएं भी लुभाती हैं और दोस्तों के साथ मदिरापान और ताश के पत्ते भी।
आस्तिक को नैनो टेक्नोलॉजी, आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस, क्वांटम फिजिक्स का भी ज्ञान है और वह सेलुलर माइक्रोबायोलॉजी का भी बड़ा ज्ञाता है। इसके पूर्वज तो अंतर्ध्यान होने और अगले ही पल दुनिया मे कहीं भी प्रकट होने की कला जानते थे। मध्यकालीन आक्रांताओं के कारण कुछ ज्ञान विलुप्त हो गया है। वह कैंसर होने पर रेडियोथेरेपी नही कराता, महामृत्युंजय मंत्र का जाप करता है। बच जाने पर प्रभु को धन्यवाद देता है, निपट जाने पर स्वर्ग के आनंद लेता है।
नास्तिक को कुछ नही पता। वह सारे ज्ञान-विज्ञान की समझ होने का दावा करता फिरता है, लेकिन जानता कुछ भी नहीं है। कई बार तो वह अपनी ही किसी खोज को कुछ दिन बाद खारिज़ कर देता है और फिर वहीं पहुंच जाता है,जहां से चला था। कैंसर होने पर वह वेबकूफ अस्पतालों के चक्कर लगाता फिरता है।
आस्तिक सदाचारी है, पुण्यात्मा है, चोरी नहीं करता, झूठ नही बोलता, लड़कियों को देवी मानता है, दहेज़ नहीं लेता, रिश्वत नहीं लेता।
नास्तिक चोर है, कमीना है, झूठा है, लड़कियां छेड़ता है, दहेज़ लेता है, भ्रस्टाचारी है।
बड़े दुःख की बात है, यह दुनिया नास्तिकों से भरी हुई है।

- जुलाई 2018

निर्विकार चेतना या अमन (मन का विचार शून्य होना) की अवस्था ही "ध्यान" है। - बुध्द

निर्विकार चेतना या अमन (मन का विचार शून्य होना) की अवस्था ही "ध्यान" है। - बुध्द
वेदांत यह मानता है कि आत्मा, परमात्मा और पुनर्जन्म है। इसलिये वेदांती के मन के लिए ध्यान असंभव है। क्योंकि वहाँ पहले से ही इतना कुछ भरा हुआ है कि अमन की अवस्था या शून्य या निर्वात संभव नहीं है।
अतः ध्यान की अवस्था बुद्ध के यहाँ ही संभव है।
इस विषय पर और प्रकाश डालता हुआ मित्र Sanjay Shramanjothe का पठनीय आलेख प्रस्तुत है। बस जरा धीरे-धीरे पढ़िए और अपने मन को पूर्वाग्रह से मुक्त होकर पढ़िए।
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गौतम बुद्ध के लिए अनत्ता या स्व सहित व्यक्तित्व की हीनता को सरल भाषा में फिर से रख रहा हूँ ... यह अनत्ता बौद्ध धर्म की सबसे गहन और आवश्यक अनुभूति है।
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गौतम बुद्ध मन या व्यक्तित्व या आत्मा को एक स्वतन्त्र इकाई की तरह नही देखते। बुध्द शरीर को भी चार महाभूतों से बना हुआ मानते हैं और मन को भी स्मृतियों, कल्पनाओं, शिक्षा, सामाजिक कन्डीशनिंग आदि से मिलकर बना हुआ मानते हैं। इसी कारण मृत्यु के बाद जैसे शरीर बिखर जाता है वैसे ही मन भी अपने टुकड़ों में बिखरकर खो जाता है।
शरीर और मन के ये ही टुकड़े अन्य सैकड़ों हजारों गर्भ में प्रवेश करते हैं और उस नए जीव के शरीर और मन को बनाते हैं। जैसे एक जीव के मरने पर उसका शरीर मिट्ठी में मिल जाता है और फिर घास पत्तों पेड़ों द्वारा खाया जाता है फिर उसे दुसरे जीव अपने शरीर में ले लेते हैं। ऐसा ही मन के साथ भी होता है। इसका ये अर्थ है कि एक आदमी का मन मरने के बाद सैंकड़ों मनों के निर्माण में ईंट सीमेंट की तरह इस्तेमाल हो जाता है।
इसीलिये अगला जीव या बच्चा पहले मर चुके अनगिनत लोगों के मन से थोड़े थोड़े टुकड़े चुनकर निर्मित होता है। उसका शरीर भी पिछले हजारों लोगों के मृत शरीर के उन अंशों से बनता है जो प्रकृति में मिल गए हैं। आधुनिक जीव विज्ञान या बायोलॉजी में इसे भोजन चक्र या खाद्य श्रृंखला के अर्थ में समझाया गया है।
इस तरह बुध्द का यह कहना है कि जिस शरीर को आप अपना कहते हैं वो अन्य शरीरों के अवशेषों,भोजन, पानी और खनिजों से मिलकर बना है। और जिस मन व्यक्तित्व या स्व को आप आत्मा कहते हैं वह अन्य हजारों लोगों के बिखर चुके मन के टुकड़ों का गठजोड़ है। इसीलिये जो लोग पुनर्जन्म का दावा करते हैं वे ये नही समझा पाते कि हर आदमी को अपने जन्म याद क्यों नही रहते।
ओशो रजनीश जैसे वेदांती बाजीगर कहते हैं कि इसी जन्म की बातें याद नहीं रहतीं तो पूर्वजन्म की कैसे रहेंगी, इसलिए पूर्व जन्म की याद न होने का मतलब यह नहीं कि वह होता नहीं। यहां रजनीश पृकृति की समझ को चुनौती दे रहे हैं, उनकी मानें तो प्रकृति मूर्ख है। अगर शंकराचार्य या रजनीश के अनुसार पुनर्जन्म सच में ही होता तो करोड़ो साल के उद्विकास में प्रकृति कोई रास्ता ढूंढ ही चुकी होती उसे याद दिलाने का।
अब जैसे कोई डाक्टर मरता है, अगले जन्म में फिर से डाक्टर पैदा नहीं होता, अगर पुनर्जन्म है और व्यक्तित्व सहित मन की निरन्तरता सत्य है तो उस डाक्टर को अगले जन्म में दुबारा मेडिकल कालेज क्यों जाना होता है? चलो ये भी मान लिया जाय कि पूरी स्मृति आना कठिन है तो भी रुझान और पसन्द तो वही रहनी चाहिए ना? पुनर्जन्म मानने वाले खुद कहते हैं कि हर जन्म में जाति कुल व्यवसाय रूचि और लिंग बदल सकता है।
अब ये बड़ा मजाक है। प्रकृति इतनी मूर्ख नहीं हो सकती। अस्सी साल जो तैयारी करवाई उसे अगले जन्म में भी जारी रहना चाहिए, यही कॉमन सेन्स है। अगर यह जारी नहीं रहती या कुदरत खुद इसे जारी नहीं रख रही तो इसका मतलब है कि ऐसी कोई निरन्तरता होती ही नहीं है।
वेदांत या रजनीश स्टाइल व्याख्या से इस गुत्थी को सुलझाना असंभव है। ये गुत्थी बुद्ध और कृष्णमूर्ती ही सुलझा सकते हैं। बुद्ध के अनुसार मृत्यु के बाद बिखरकर पुनः अन्य हजारों टुकड़ों को शामिल करके संगठित होने वाले शरीर और मन को तैयार होने में एक ख़ास समय लगता है। यही गर्भ और बचपन का समय है। इस काल में नए संगठित हो रहे मन के हजारों टुकड़े आपस में सामन्जस्य बैठा रहे होते हैं इसलिए उस बच्चे का कोई एक व्यक्तित्व नहीं होता।
बुद्ध के अनुसार चूँकि हर जन्म नये व्यक्ति का जन्म होता है और कोई आत्मा या स्व नही होता इसलिए उसमे निरंतरता हो ही नही सकती इसीलिये करोड़ों करोड़ लोग अपने पिछले जन्म को नही जान सकते क्योंकि वो होता ही नही है। करोड़ों में एक आदमी को कोई याददाश्त बनी रहती है कि फलां साल पहले किसी गाँव में वो फलां जगह था या इसका पिता या उसका बेटा था। बुद्ध के अनुसार ऐसी स्मृति सम्भव है।
बुद्ध समझाते हैं कि किसी किसी गर्भ में किसी अन्य मर चुके आदमी की स्मृतियों का बड़ा टुकड़ा प्रवेश कर जाए तो अगला बच्चा इन स्मृतियों को देखकर बताने लगता है। इसे ही गलती से पुनर्जन्म का सबसे बड़ा सबूत बता दिया जाता है।
ये ऐसा है जैसे किसी मर गए इंसान के पाँव या हाथ काटकर किसी दुसरे में लगा दिए जाएँ। ये हाथ पैर नए शरीर में जिन्दा रहेंगे लेकिन वो नया आदमी पुराने का पुनर्जन्म नही है। क्योंकि हाथ पैरों के आलावा अन्य अंग उसने न जाने कितने दुसरे मर चुके लोगों के शरीर से लिए हैं।
इस अर्थ में न केवल आत्म या स्व बल्कि यह प्रतीयमान व्यक्तित्व भी हजारों अन्य टुकड़ों का जोड़ है, कोई मैं संभव ही नहीं है, यह सिर्फ एक आभास है। चूँकि कोई ठोस मैं नहीं है, सब टुकड़ों के परे एक खाली आकाश या शून्यता है इसीलिये ध्यान संभव है। ध्यान का संबन्ध सिर्फ अनत्ता से ही जुड़ता है। जो धर्म आत्मा परमात्मा में यकीन रखते हैं वे न तो ध्यान की कल्पना कर सकते हैं न उसकी वैज्ञानिक व्याख्या कर सकते हैं।
निर्विचार चेतना या अमन की अवस्था को ध्यान कहा गया है, अर्थात यह ध्यान ऐसे दर्शन से उपजा है जहां मन या स्व के शून्य हो रहने की सबल प्रतीति रही है। और ऐसा सिर्फ बुद्ध के धर्म में हुआ है। वेदांत के लिए न सिर्फ मन सत्य है बल्कि आत्मा और परमात्मा सहित पुनर्जन्म भी सत्य है।
इसीलिये वेदांती मन के लिए ध्यान असंभव है, वहां इतना कुछ भरा हुआ है कि अमन या निर्वात संभव ही नहीं है। इसीलिये वेदांती लोग थोड़ी देर तक एकाग्रता मन्त्र तन्त्र आदि करके भक्ति या लय योग में घुस जाते हैं जो कि महावीर और बुद्ध के लिए असम्यक ध्यान हैं। ये होश का नहीं लीनता और मदहोशी का मार्ग है यह जड़ और काष्ठ समाधि का मार्ग है। इसमें सहज बोध यानी कॉमन सेंस बढ़ता नहीं बल्कि घटता जाता है।
इस वृहत्तर अर्थ में बुद्ध न केवल आत्मा और पुनर्जन्म को ख़ारिज करके सामाजिक और मनोवैज्ञानिक कन्डीशनिंग को भी खत्म कर देते हैं बल्कि वे मन शरीर चेतना और संस्कारों के स्तर पर इकोलॉजी या परस्पर निर्भरता के एक नए विज्ञान को भी जन्म दे देते हैं। अर्थात सभी के शरीर और मन एकदूसरे पर निर्भर हैं इसीलिये सबकी चेतना शरीर और मन आपस में जुड़े हैं। इसीलिये सब प्राणियों में समानता भाईचारा और प्रेम होना चाहिए।
इसी से बुद्ध की लोकमंगल और मंगलमैत्री की धारणा जन्म लेती है। यही कारण है कि इस निष्पत्ति तक आते ही बुद्ध ने हिंदुओं की वर्ण और जाति व्यवस्था को नकार दिया और सबको अपने संघ में प्रवेश दिया।
-संजय श्रमण

मित्र Anurag Arya की जोरदार लेखनी -

मित्र Anurag Arya की जोरदार लेखनी -
मैं लेफ्ट हैण्ड से बोलिंग करता हूँ राइट हैण्ड से बैटिंग। मूर्ति पूजा में यकीन ना करते हुए भी आस्तिक हूँ , मैं किसी व्रत अंधविश्वास में यकीन ना करते हुए भी ईश्वर में यकीन करता हूँ। मुझे कट्टरता एक जैसी ही लगती है किसी भी मजहब की हो किसी भी सूरत में . मैं कबीर को भी रेलिश करता हूँ मार्क्स को भी विवेकाननद को भी और फ्रायड को भी। मैं गांधी -नेहरू -पटेल को भी नायक मानता हूँ भगत -बोस -आजाद को भी। मैं एक नायक को बड़ा करने के लिए दूसरे को छोटा नहीं करता। मैं असहज नहीं होता जब किसी लेखक को गुड लुकिंग और फैशनेबल देखता हूँ ,मैं तब भी असहज नहीं होता जब किसी फौजी की बेटी "पीस "की बात लिखती है सचिन मेरा फेवरेट रहा है पर इससे द्रविड़ या लक्ष्मण के लिए मेरी रेस्पेक्ट ख़त्म नहीं होती। मैं किसी लेखक का ,फैन हो सकता हूँ पर उसे पूजता नहीं मेरी समझ किसी चीज़ को तर्क से देखती है उसकी कविताओ कहानियो को पसंद करते हुए भी मैं किसी सन्दर्भ में उससे असहमति रख देता हूँ। मैं संदर्भो को देखता हूँ ,व्यक्ति पोलिटिकल फिलॉसफी को नहीं ,मेरी समझ में कोई भी फिलॉसफी कोई भी व्यक्ति कम्प्लीट नहीं है कोई भी परफेक्ट नहीं हो सकता ,होना भी नहीं चाहिए थोड़ा बहुत इम्परफेक्शन सुधार की गुंजाइश बनाये रखता है । अलग अलग समयो में अलग अलग जगह हम सही या गलत होते है मेरी फेवरेट मूवीज़ में "अर्धसत्य " भी है" कभी कभी " भी मुझे "प्यासा" भी पसंद है ,"शोले" भी मुझे few good man भी पसंद है departed भी ,मै NOTEBOOK देखकर भी रोता हूँ ,तारे जमीन पर देखकर भी और मुझे ice age भी पसंद है और FINDING NEMO का मैं मुरीद हूँ। भारत एक खोज का ऋग्वेद का " सृष्टी से पहले सत्य नहीं था,असत्य भी नहीं" मुझे पसंद है और " फायाकुन "भी। मैंने किसी गिटार का कोई मजहब नहीं देखा ,किसी किताब का नहीं ,किसी पहाड़ की कोई जात नहीं देखी किसी नदी की नहीं।
मैं रिमोट से कंट्रोल नहीं होता !
आप मुझे पसंद करे या नहीं मुआफ़ करिये मैं ऐसा ही रहूँगा !


- जून 2018

गाली और ब्लड प्रेशर

बचपन से ही ये दंतकथाये सुनता आया हूँ कि
एकबार किसी ने गौतम बुद्ध को गाली बक दी तो उन्होंने बड़ी विनम्रता से यह उत्तर दिया कि मैं आपकी दी हुई चीज स्वीकार नही कर सकता अतः इसे आप ही रखें।
गाँधी जी के अहिंसा दर्शन के बारे में तो सुप्रचलित है कि यदि कोई आपके गाल पे झापड रसीद कर दे तो आप उसकी ओर दूसरा गाल भी कर दें।
इन दोनों बातों को सिर्फ कहानी की तरह सुना पर कभी पालन न कर सका। छात्र जीवन और उसके बाद के जीवन में ऐसे कई प्रसंग आये कि किसी ने गाली बकी तो उसका मुंहतोड़ जवाब दिया बेहतरीन बुंदेलखंडी गालियों से...
यह भी बताता चलूं कि मुझे बालपन में गाली देने का अधिकार प्राप्त नहीं था। विधिवत रूप से उत्तम कोटि की गालियाँ कक्षा 09 के बाद देनी शुरू कीं थी। आज भी कभीकभार गालियां देता हूँ, पर शुरुआत नहीं करता। ज्यादातर गालियां कार चलाते समय ही उपजती हैं। भारत की सड़कों पर बिना गाली दिए आप वाहन चला ही नहीं सकते। पत्नी का कहना है कि गाली देकर क्यों अपनी जुबान गंदी करते हो और ब्लडप्रेशर बढ़ाते हो?
पर मुझे लगता रहा कि गाली देकर मेरा ग़ुबार निकल जाता है और ब्लड प्रेशर सामान्य हो जाता है।
उसके बाद -
फेसबुक पर आ गया और उसका ये एहसान रहेगा कि गाली और धमकी झेलने का खूब अभ्यास हो गया है। कभी-कभी तो हंसी भी आती है सामने वाले पर। सच में बुद्ध और गाँधी बहुत समझदार थे....

- जून 2018

महि‍ला मुक्‍ति‍ का कोई रटा-रटाया फार्मूला नहीं हो सकता

इस पुरुषवादी समाज में महि‍ला मुक्‍ति‍ का कोई रटा-रटाया फार्मूला नहीं हो सकता। जैसे - जैसे महि‍लायें पुरुषों के क्षेत्र में दखल देती जायेगी, ये टकराव और बढ़ेगा। आखि‍र अपने हि‍स्‍से की सुखसुवि‍धा पुरुष ऐसे ही तो नहीं छोड़ देंगे। परंतु मुक्‍ति‍ का कारवां भी इसी संघर्षमय पथ से जायेगा। महि‍लायें भी ये मानना छोड़ दें कि‍ चीख पुकार मचाने, अपने पूर्व प्रेमी के खि‍लाफ एफ.आई.आर. कराने, तथा कठोर कानून बनवाने से शोषण की व्‍यवस्‍था समाप्‍त हो जायेगी। अपनी जीवि‍का के लि‍ए आत्मनि‍र्भर बनना सि‍र्फ एक शुरूआत है। उससे कहीं अधि‍क आवश्‍यक है वर्जनायें तोड़ना। शारीरि‍क श्रम के वे काम भी सहर्ष करना जि‍न्‍हें महि‍लायें भी पुरुषों के काम ही मानती रही हैं, जैसे - स्‍टेशन पर आधा सामान स्‍वयं उठाना न कि‍ खुद पानी की बोतल टांगकर खड़े हो जाना और पति‍ के कंधों पर बोझ लाद देना, गैस का सि‍लेंडर सरकाते हुए कि‍चन तक ले जाना इत्‍यादि‍....... । इस संबंध में मुझे नि‍रमा वाशिंग पाउडर का वह वि‍ज्ञापन पसंद है जि‍समें हेमा, रेखा, जया और सुषमा कीचड़ में फंसी कार को धक्‍का देने के लि‍ए अपने वस्‍त्रों की परवाह न करते हुए कीचड़ में कूद जाती हैं।..................... जरा सोचि‍ये कि‍ बंद कार को धक्‍का लगवाने से स्‍त्री मुक्‍ति‍ की राह खुलेगी या स्‍कूटी बंद हो जाने पर कि‍सी पुरुष से कि‍क ल्रगवाने से......

- 2013 की पोस्‍ट

सनातन धर्म में सबका योगदान

दो लद्दाख यात्राओं और एक भूटान यात्रा के बाद जो कुछ बातें मुझ नास्तिक (यहाँ यह शब्द इसलिए क्योंकि मैं संसार के किसी संस्थागत धर्म के प्रति भावुक नही हूँ) को संमझ आईं वे यह हैं कि -
1. सनातन धर्म सिर्फ हिंदुओ का, अथवा हिन्दू ही सनातन धर्म का प्रतिनिधित्व नही करते।
2. सनातन धर्म में जो दार्शनिक ऊंचाई दृष्टिगोचर होती है, वह सिर्फ आस्था, परम्परा और मूर्तिपूजा का ही विस्तार नही हैं। सनातन के विकास में बौद्ध, जैन, आजीवक, भौतिकवादी नास्तिक, शून्यवादी, एकेश्वरवाद, नाथपंथ....के साथ साथ सैकड़ो श्रमणों/भिक्षुओं का योगदान है।
3. बुद्ध को अवतार मान लिया, महावीर को नही माना, इससे कोई विशेष अंतर नहीं आता। जब हम दर्शन की बात कर रहे होते हैं, तब निज धर्म और व्यक्तिगत आस्था को एक कोने में रखना ही उचित।
4. बुद्ध को अवतार घोषित करने के कई अन्य कारण भी है, जिससे वर्चस्व बना रहे।
5. बुद्ध का धर्म भी कालांतर में विभिन्न मतों में विभक्त हुआ।
भूटान में तो वज्रयानी परंपरा मांस, मदिरा, सेक्स को भी स्वीकार कर रही है।
6. बुद्ध विहारों में नव प्रशिक्षुओं को उसी तरह पोथी बाँचनी पढ़ रही है, जैसे बनारस का पंडिताई स्कूल हो या मदरसे का घोटा।

7. अब तक का निष्कर्ष यही कि संस्थागत होते ही धर्म का पतन होने लगता है। दार्शनिकता की जगह वर्चस्व की लड़ाई और आर्थिक कारण उभर जाते हैं। ऐसे में विवेकानंद की अप्रोच ही अच्छी कि जहाँ से भी ज्ञान प्राप्त हो, उसे ग्रहण करो। सभी मुक्ति के मार्ग हैं।
पर दिक्कत यही कि मुक्ति की लालसा ही हमे स्वार्थी और लोलुप बना देती है। यही भ्रम है यही माया।

- मई 2018

राधा-गोविंद पवित्र भोजनालय

कार से ग्वालियर से जयपुर जाते समय रास्ते में कई ढ़ाबे मिलते हैं। राजस्थान सीमा लगते ही ढाबों पर "पवित्र" और "ट्यूरिस्ट" शब्द बहुतायत से दृष्टिगोचर होते हैं, जैसे - "गोवर्धन पवित्र ट्यूरिस्ट भोजनालय एंड रेस्टोरेंट"।
"पवित्रता" पर इतना जोर और कहीं नही देखा। मेरी जिज्ञासा पर ससुर साहब ने एक रोचक किस्सा सुनाया। बात लगभग 40 साल पुरानी है। पी.एच.ई.डी. विभाग में उनके अधीनस्थ एक चतुर्थ श्रेणी कार्मिक कार्यरत था - अब्दुल हमीद खान। उनके पिता जी लतीफ़ खान (काल्पनिक नाम) ने जयपुर के प्रसिद्ध एम.आई. रोड पर मांसाहारी भोजनालय खोला था, जो कुछ खास नही चल रहा था। घाटे से परेशान होकर उन्होंने मासाहारी भोजनालय बंद करके शाकाहारी भोजनालय खोल दिया। नाम रखा - "राधा-गोविंद पवित्र भोजनालय"।
सुनते हैं उसके बाद भोजनालय चल निकला। पता नही एम.आई. रोड पर अब भी है वह भोजनालय या वुडलैंड का शोरूम खुल गया?


मई 2018

सलाद - हिन्दू चटनी - मुस्लिम

सलाद - हिन्दू
चटनी - मुस्लिम
हींग की गोली - हिन्दू
चूरन - मुस्लिम
शोभायात्रा - हिन्दू
जुलूस - मुस्लिम
गाय - हिन्दू
बकरी -मुस्लिम
बारिश - हिन्दू
सूखा - मुस्लिम
सुबह - हिन्दू
रात - मुस्लिम
..... कुछ आप लोग जोड़ दीजिये अपनी ओर से।

- अप्रैल 2018

प्रश्न और निंदा से भागना दरअसल उपनिषद के ज्ञान से विमुख होना है।

इसमें किस मूर्ख को संदेह होगा कि भारत का भूतकाल ज्ञान , विज्ञान और जीवन के हर क्षेत्र में सर्वोपरि रहा है। अगर मैं भारत के प्राचीन वैभव पर बोलू तो 01 घंटा कम पड़ जाए। ऐसी महान उदात्त संस्कृति दुनिया मे कहीं नही थी। जो समकालीन संस्कृतियां थी भी, तो वे भी भारत से निरंतर सीखती रहीं।
यहाँ तक तो ठीक है। अब वर्तमान दुर्दशा को देख वामपंथी (बेहतर होगा प्रगतिशील) अगर इन बातों पर प्रश्न पूछते हैं तो क्या गलत करते हैं? आखिर निंदक नियरे राखिये भी तो हमारी संस्कृति में ही था -
1. जिस हिंदुत्व को सनातन संस्कृति का वाहक बताया जाता है, वह अपनी मूल पूजोपासना पद्यति से इतनी दूर कैसे खिसक गया?
2. प्रकृति पूजक/ यज्ञ उपासक समाज कैसे मूर्ति पूजक हो गया और लगभग हर जल स्रोत को प्रतिमा विसर्जन से तबाह करने का जिम्मेदार है?
3. पूर्व वैदिक और वैदिक कालीन नारी स्वतंत्रता (स्वयंबर प्रथा/ गन्दर्भ विवाह) आखिर कैसे खाप पंचायत तक आ पहुंची?
4. विश्व वन्धुत्व का नारा साम्प्रदायिक नफरत में कैसे बदल गया?
5. सत्यमेव जयते से फेक न्यूज़ तक की उड़ान किस तरह सामने आई?
6. आनो भद्रा कृत्वो यन्तु विश्वतः आखिर क्यों पश्चिमी ज्ञान और वामियों के तर्क से भयभीत है?
7. जीव कल्याण और कण कण में भगवान देखने वाला मुल्क इतना हिंसक कैसे हो रहा है?

ऐसे सैकड़ो प्रश्न हैं जिनके उत्तर समस्त पूर्वाग्रहों के बावजूद खोजे जाने चाहिए।
याद रखिये प्रश्न और निंदा से भागना दरअसल उपनिषद के ज्ञान से विमुख होना है।

- अप्रैल 2018

गाँधी और नेहरू जिम्मेदार हैं।

कुछ प्रश्न और संभावित उत्तर -
1. क्या अधिकांश भारतीय भ्रस्ट और नैतिक रूप से पतित नहीं है? (भ्रस्टाचार सिर्फ आर्थिक नहीं होता)
2. क्या भारतीय समाज मूलतः अहिंसक है? (बुद्ध, महावीर और गाँधी के मुल्क में फौजदारी के मुकदमो की संख्या?)
3. रास्ते पर जाती युवती की ओर आम भारतीय की निगाहें कैसी होती हैं?
4. भारत मे जातिवाद और तत्सम्बन्धी भेद है या नही?
5. भारत की वर्तमान व्यवस्था में न्याय है?
6. क्या हमारे समाज मे कोई किसी का शोषण नही करता?
ऐसे ही कई संभावित प्रश्नों के सरल उत्तर निम्नवत हो सकते हैं -
1. सब वामियों का किया धरा है।
2.पहले हम ठीक थे, मुस्लिमों के बाद सब गड़बड़ हुई।
3. गाँधी और नेहरू जिम्मेदार हैं।

- अप्रेल 2018

संतुलन का रास्ता

इस बात पर शायद ही किसी का मतांतर होगा कि विज्ञान से तकनीकी और प्रौद्योगिकी ने हमारे जीवन को बदल कर रख दिया है। आज से लगभग 20 वर्ष पूर्व आनंद भवन इलाहाबाद में प्रो. यशपाल का एक व्याख्यान सुना था जिसमें उन्होंने कहा था कि विज्ञान और प्रौद्योगिकी के विकास की दर इतनी तीव्र है कि हर 05 साल में मानव जाति के पास अब तक उपलब्ध सारी सूचनाएं दोगुनी हो जाती हैं।
पिछले 30-35 साल में मैंने अपने ठीकठाक होश में न जाने कितने परिवर्तन खुद देखे और महसूस किए हैं। विज्ञान और प्रौद्योगिकी ने हमे कई समस्याओं से निजात दिलाई है। पिछले कुछ सालों में ही भारत से पोलियो जैसी भयावह बीमारी का उन्मूलन हुआ है। इस प्रौद्योगिकीय विकास पर मुग्ध होने के साथ कुछ बातें हैं जो मुझे दुःखी करती हैं। स्मृति के आधार पर कुछ लिख रहा हूँ, बाकी आप लोग जोड़ सकते हैं -
1. हमने कई नदियां और वन लुप्त कर दिए हैं। मेरे बचपन का बयाना नाला अब सच मे नाला है। किसी जमाने मे उसमे नहाया हूँ।
2. नदियों और जलाशयों को हमने अपनी धार्मिक कुप्रथाओं के चलते लगभग मार डाला है। ललितपुर का सुमेरा ताल और बांध निरंतर प्रतिमा विसर्जन से लुप्त होने की कगार पर हैं।
3. आवश्यकता के लिए जंगल मे लकड़ी की कोई कमी नहीं है, पर लालच और व्यवसाय के लिये होनी वाली कटाई कई जंगलों को लील गयी है।
4. गाँवों की निरंतर उपेक्षा और कृषि के घाटे के व्यवसाय में तब्दील होने के कारण गाँवों से शहरों की ओर हुए पलायन ने गाँव और शहर दोनों को उजाड़ दिया है।
5. हम पूरी निर्ममता से जमीन से अयस्क और पत्थरों का उत्खनन कर रहे हैं।
कहने को तो हम विकास कर रहे हैं, पर वास्तव में हम खुद को तबाह कर रहे हैं।
संतुलन का रास्ता हमे स्वयं खोजना होगा।

मार्च 2018

धार्मिक अनुष्ठान और लाउडस्पीकर

डिस्क्लेमर :- यह पोस्ट सच्ची घटना पर आधारित है। हमारे नकचढ़े समाज मे किसी की भावनाएं आहत न हों, इसलिए इस पोस्ट में दिखाई गयी जगह, पात्र, और मज़हब बदल दिया गया है। सो जानवी!

हुआ ये कि मेरे शहर में एक नगर के आधे संभ्रांत व्यक्ति पूरे सभ्रांत बनने के प्रयास में अपने घर में एक धार्मिक अनुष्ठान जैसे - सुंदर कांड, भक्तांबर, भागवत, (मुस्लिम क्या करते हैं पता नही, पर उनके यहां से भी कुछ आवाज़े आती हैं ज़ोर-ज़ोर से...... जैसे व्यक्तियों का समूह युद्ध पर जा रहा हो)।
यह धार्मिक ज्ञान अन्य लोगों के कानों में ठूस दिया जाए और उन्हें भी निशुल्क पुण्य लाभ हो, इस हेतु लाउड स्पीकर का भी इंतेज़ाम था। जाड़े की रात में लाउड स्पीकर अपने फटे गले से माहौल को और कर्कश बना रहा था।
एक नौजवान जो बड़ी मुश्किल से फेसबुक और व्हाट्सअप त्यागकर पढ़ने बैठा था। कहते हैं उसपर वामपंथियों का ऊपरी साया था। बहुत देर इस कर्कश ध्वनि को झेल चुकने के बाद अंततः उसने फिर से लैपटॉप उठाया और नए बने मुख्यमंत्री को ट्वीट करके शिकायत चेप दी। हालांकि उसे पता था कि जब तक कोई ट्वीट पर ध्यान देकर कार्रवाई करेगा, तब तक पूरा पुण्य लाउड स्पीकर के माध्यम से समस्त धर्मप्रेमी बंधुओ तक पहुंचाया जा चुका होगा। वह सो गया।

पर पता नहीं किस ईश्वरीय प्रकोप से मुख्यमंत्री जी ने उस ट्वीट को पढ़कर स्थानीय थाने को निर्देश दे दिए और थाने से लाउडस्पीकर बंद कराने गए धर्मप्रेमी हवलदारों ने उस नास्तिक और विधर्मी का नाम बता दिया।
सुना है सुबह से नगर के कुछ पूरे सभ्रांत व्यक्ति उस बालक के घर पहुंच कर उसे जबरदस्ती असली वाला पुण्य बांटने को लालायित है ताकि भविष्य में वह भी धर्म के काम आ सके।


फरवरी 2018

राष्ट्रविरोधी, समाज विरोधी, धर्म विरोधी, वामी, कामी

समस्या ये नहीं है कि इस देश मे अब लगभग हर मुद्दे पर तू तू-मैं मैं होती है। समस्या ये भी नहीं है कि लगभग हर मुद्दे पर मत और विचारधारा का स्पष्ट विभाजन है। समस्या ये है -
१. राजनीति, फेसबुक, और बेरोजगारी इस देश के युवा को निरंतर हिंसक और प्रतिक्रियावादी बना रही है और इसका निपटारा बहस, तर्क, और मर्यादा को पीछे छोड़ परस्पर विद्वेष, गाली गलौच और हिंसा से हो रहा है।
२. राजनीति प्रेरित सामाजिक मुद्दे इस तरह से लोगों का मानस तैयार कर रहे हैं कि उन्हें भूत/वर्तमान/भविष्य का हर तथ्य एक साजिश नज़र आने लगा है। उनके पास वर्तमान और भविष्य की कोई स्पष्ट योजना नहीं है, लेकिन उन्हें भूत और इतिहास बदलने की बहुत जल्दी है।
३. यहकि, एक-एक कर संवैधानिक संस्थाएं अप्रासंगिक बनाई जा रही हैं। यहाँ तक कि सुप्रीम कोर्ट भी
४. कुछ सैकड़ा लोगों की भीड़ पूरे तंत्र पर हावी है। हम निरंतर संकुचित समाज के रूप में तब्दील हो रहे हैं जिसमे लोग जाति, धर्म, स्थानीयता जैसी बातों पर विभाजित हैं।

और इन सबसे बढ़कर ये कि इन मुद्दों पर सोचने, लिखने और दुःखी होने वाले के लिए राष्ट्रविरोधी, समाज विरोधी, धर्म विरोधी, वामी, कामी.......जैसी संज्ञाएँ हैं ही।

फरवरी 2018

बीमा का मायाजाल

बीमा का मायाजाल :-
प्रत्येक मनुष्य को अपने जीवन और भविष्य की चिंता सताती रहती है। आमतौर पर सभी अपने को असुरक्षित महसूस करते हैं।
"भविष्य में होने वाली किसी भी समस्या से ज्यादा भयावह है उसकी कल्पना!", यह बात प्रेमचंद किन्ही दूसरे शब्दों में कह गए हैं। पर हमें ये सब बातें तसल्ली नहीं देतीं। रोजमर्रा में दिखाई/सुनाई देने वाली नकारात्मक खबरें सीधे हमारे दिल पर चोट करती हैं। इसी वजह से हर व्यक्ति इस जुगत में लगा रहता है कि वह येन केन प्रकारेण अपना भविष्य सुरक्षित कर ले।
बाज़ार को मनुष्य के इस भय में बड़ा अवसर नज़र आया है। पिछले दशक से "बीमा (insurance)" एक नए और फायदे के उद्यम के रूप में उभरा है। जीवन से लेकर कार तक, विदेश यात्रा से लेकर फसल चौपट होने तक, चिकित्सा से लेकर शिक्षा तक .......... हर बात के लिए बीमा बिक रहा है। जितनी ज्यादा असुरक्षा, उतना अधिक प्रीमियम! सुना है कि विदेशों में तो गला ख़राब होने से लेकर असाध्य बीमारी होने तक, क्लास में फ़ेल होने से लेकर बेरोजगार रहने तक के लिए बीमा बिकता है।
अब जरा अपने आसपास के परिदृश्य पर नज़र डालिये। किस तरह से हम लगभग हर दूसरी बात के लिए बीमा कराने को विवश हो गए हैं। मेरे खुद के पास - जीवन बीमा, परिवार बीमा, संतान बीमा, कार/स्कूटर बीमा, संतान शिक्षा बीमा, चिकित्सा बीमा, इलेक्ट्रॉनिक गैजेट्स की AMC इत्यादि मौजूद हैं और कमाई का एक बड़ा हिस्सा इनका प्रीमियम चुकाने में खर्च होता है।
कहने की बात यह है कि इस पूरे मायाजाल में यदि कोई मज़े काट रहा है तो वह है बीमा प्रदाता कंपनी। उसके द्वारा प्रतिवर्ष प्रीमियम से प्राप्त होने वाली मोटी रकम का बहुत छोटा सा हिस्सा उसे क्लेम के निपटारे में खर्च करना होता है, वह भी तमाम ना नुकुर और और छुपी शर्तों के अधीन। इस गोरखधंधे में सरकार का भी मूक समर्थन शामिल है अन्यथा प्रीमियम की उच्च दरों को कम करने या निर्धारित करने की बात कहीं से तो उठती?
- डॉ. परितोष मालवीय,जनवरी2018
राजस्थान के शिक्षा मंत्री जी ने कहा है कि गुरुत्वाकर्षण के सिद्धांत की खोज न्यूटन ने नहीं किन्हीं ब्रह्मगुप्त ने किसी ब्रह्मस्फुटक सिद्धांत नामक ग्रन्थ में की थी। उनकी खोज का सम्मान होना चाहिये।
जैसा कि हमारे महान जम्मूद्वीप में होता है, अधिकाँश भावुक लोग गर्वोन्मत्त हो गए हैं तथा कुछ संदेहवादी/तर्कवादी उपहास भी उड़ा रहे हैं।
मैं किसी भी दावे को यूँ ही खारिज़ या स्वीकार करने के पूर्व चंद बातें जानना चाहूंगा -
1. ये ब्रह्मस्फुटक सिद्दांत किस काल की रचना है?
2. इसकी कोई पांडुलिपि सुरक्षित है क्या?
3. भारतीयों में विज्ञान क्षेत्र के अवदान से हम सभी वाकिफ़ हैं, गुरुत्वाकर्षण अब तक छुपा क्यों रहा?
4. इस किताब में गुरुत्वाकर्षण का सिद्दांत सूत्र या प्रमेय के रूप में है या कल्पना/उल्लेख मात्र है?
5. इसके intellectual property rights के दावे को लेकर सरकार/व्यक्ति/संस्था द्वारा किसी तरह का प्रयास हो रहा है क्या?

यदि इन प्रश्नों का तार्किक और प्रामाणिक उत्तर मौजूद है तो आगे बात संभव है अन्यथा कोई और क्या जगहंसाई करेगा, हम खुद ही ढपोरशंख साबित हुए जा रहे हैं।

- जनवरी 2018

पंडि‍त जवाहर लाल नेहरू के नि‍धन पर संसद में पं. अटल बि‍हारी बाजपेई की श्रद्धांजलि‍

दो दि‍न पूर्व आदरणीय Rama Shankar Singh ने मुझे इस पठनीय गद्य के अनुवाद का दायि‍त्‍व सौंपा था। सो अनुवाद प्रस्‍तुत है -
''पंडि‍त जवाहर लाल नेहरू के नि‍धन पर संसद में पं. अटल बि‍हारी बाजपेई की श्रद्धांजलि‍''
श्रीमान,
एक स्वप्न बि‍खर गया है, एक गीत शांत हो गया है, एक ज्योति‍ अनंत में वि‍लीन हो गयी है। यह स्वंप्न‍ था, भय और भूख से मुक्त दुनि‍या का। यह उस महाकाव्य का गीत था जि‍समें गीता की गूंज और गुलाब की महक थी। यह वह चि‍राग था जो गहन अंधकार से जूझते हुए रातभर टि‍मटि‍माता रहा और हमें राह दि‍खाते-दि‍खाते एक सुबह बुझ गया।
मृत्यु अटल सत्य है और यह शरीर क्षणभंगुर। वह स्वर्णिम तन, जि‍से कल हम चंदन की पवि‍त्र चि‍ता में समर्पित करके आये हैं, उसे एक ना एक दि‍न खत्म होना ही था। लेकि‍न क्या मृत्यु को इतने दबे पाँव आना चाहि‍ए था? जब मि‍त्र नींद के आगोश में थे और प्रहरी सुस्त थे, हमसे जीवन का एक अमूल्य उपहार चुरा लि‍या गया। भारत माता आज शोकग्रस्त है - उसने अपना सपूत खो दिया है। मानवता आज उदास है - उसने अपना भक्त खो दिया है। शांति आज बेचैन है - उसका रक्षक अब आसपास नहीं है। दबे – कुचलों ने अपनी शरणस्थली को गंवा दि‍या है। सामान्य जन के नेत्रों से ज्योति चली गयी है। दुनिया के रंगमंच से मुख्य अभिनेता ने अपनी अंतिम भूमिका का प्रदर्शन करके वि‍दा ले ली है और पर्दे गि‍र गए हैं।
रामायण में महर्षि बाल्मीकि‍ ने भगवान राम से कहा है कि‍ उन्होंने असंभव को संभव बनाया है। पंडि‍त जी के जीवन में भी हमें इस बात की झलक मि‍लती है। वे शांति के उपासक होते हुए भी क्रांति के अग्रदूत थे। अहिंसा के पुजारी होते हुए भी स्वतंत्रता और सम्मान की रक्षा के लिए हर हथियार की पैरवी करते थे।
वे व्यक्तिगत स्वतंत्रता के हि‍मायती होते हुए भी आर्थिक समानता लाने के लिए प्रतिबद्ध थे। वे कि‍सी से समझौता करने हेतु कभी भयभीत नहीं रहे, परंतु भय के वशीभूत होकर उन्होंने कि‍सी से समझौता नहीं कि‍या। पाकि‍स्तान और चीन के प्रति‍ उनकी नीति‍ इस अद्वि‍तीय मि‍श्रण की प्रतीक है। इसमें उदारता भी है और दृढ़ता भी। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि‍ उनकी उदारता को कमजोरी समझा गया और कुछ लोग तो उनकी दृढ़ता को जि‍द समझने की भूल करते हैं।
मुझे याद है मैंने एकबार उन्हें चीनी आक्रमण के दौरान उस समय बहुत आक्रोशि‍त अवस्था में देखा था, जब हमारे कुछ पश्चिमी मि‍त्र पाकि‍स्तान और कश्मीर को लेकर उनपर समझौते करने का दबाव बना रहे थे। जब उनसे यह कहा गया कि‍ यदि‍ उन्होंंने कश्मीर को लेकर कोई समझौता नहीं कि‍या तो उन्हें दोनों सीमाओं पर युद्ध लड़ना होगा, तो यह सुनकर वे क्रोधि‍त हो गए और बोले कि‍ यदि‍ आवश्यक हुआ तो हम दोनों मोर्चों पर लड़ेंगे। वे कि‍सी दबाव के चलते बातचीत करने के पक्षधर नहीं थे।
श्रीमान, वे जि‍स स्वतंत्रता के पक्षधर और संरक्षक थे, वह आज खतरे में है। हमें अपनी पूरी ताक़त से इसकी रक्षा करनी होगी। वे जि‍स राष्ट्रीय एकता और अखंडता के दूत थे, वह भी आज खतरे में है। हमें किसी भी कीमत पर इसकी रक्षा करनी होगी। जि‍स भारतीय लोकतंत्र की स्थापना में उन्होंने सफलता अर्जित की थी, उसका भवि‍ष्य भी अंधकार के घेरे में है। एकता, अनुशासन और आत्म-वि‍श्वास से हमें इस लोकतंत्र को सफल बनाना है। नेता चला गया है, अनुयायी शेष रह गए हैं। सूर्य अस्त हो गया है और अब हमें सि‍तारों की मद्धि‍म रोशनी में ही अपना रास्ता तलाशना होगा। यह परीक्षा की घड़ी है। यदि‍ हम सभी अपनेआप को सशक्त और समृद्ध भारत के महान आदर्श के प्रति‍ समर्पित कर सकें तो वि‍श्व शांति‍ के प्रति‍ यह हमारा अद्वि‍तीय योगदान होगा और यही उनके प्रति‍ हमारी सच्ची श्रद्धांजलि‍ होगी।
उनके नि‍धन से इस सदन को जो क्षति हुई है, उसकी भरपायी नहीं की जा सकती। तीन मूर्ति भवन को ऐसा नि‍वासी फि‍र नहीं मि‍लेगा। ऐसा जीवंत व्यक्तित्व, विपक्ष को साथ लेकर चलने की प्रवृत्ति ‍ और परि‍ष्कृत भलमनसाहत हमें भविष्य में देखने को नहीं मि‍लेगी। मतभेदों के बावजूद हमारे मन में उनके महान आदर्शों, निष्ठा, देशप्रेम और अदम्य साहस के लिए सिर्फ सम्मान ही है।
इन शब्दों के साथ मैं उस महान आत्मा के प्रति‍ अपनी श्रद्धांजलि‍ व्यक्त करता हूँ।

फरवरी 2017

भगवन को भोग

बचपन से ही मैं अपनी माताजी को घर में आई हर अच्छी मिठाई को सर्वप्रथम भगवन को भोग लगाते हुए देखता आया हूँ। एकाध बार तो ऐसा भी हुआ कि जिस समय मैं घर में मिठाई आई, उस समय भगवान के सोने का समय चल रहा था, तो उनके लिए ग्वाला की बर्फी अलग से आरक्षित कर देने के बाद ही मुझे बर्फी चखने को मिली। मेरी नज़र इस बर्फी पर शाम तक टिकी रहती।
मैं हमेशा से यही सोचता रहा हूँ कि माता जी किसी नमकीन व्यंजन का भोग क्यों नहीं लगातीं? क्या ऐसा नहीं हो सकता कि जाड़े की रात में प्रभु के समक्ष गरमागरम मंगौड़े और मूंगफली परोस दी जाए। मुझे यह भी लगता कि प्रभु की भी कभी-कभार नमकीन खाने की इच्छा होती होगी।
पर मैं अपनी माताजी को यह कभी समझा न पाया। समझाना तो दूर, उनसे कह भी नहीं पाया। इसकी वजह सिर्फ यही थी कि मुझे उनकी भावनाएं आहत होने का भय था। आज भी यह बात लिखने में मुझे जोखिम का अनुभव हो रहा है क्योंकि अब इसे एक नास्तिक का कथ्य समझा जा सकता है।
अब प्रभु ही तय करेंगे कि उन्हें कभी कभार नमकीन भी खाने की इच्छा होती है या नहीं?

मार्च 2017

आस्था का उपहास

जो आस्तिक हैं, उन्हें अपने आराध्य की अनंत क्षमताओं पर भरोसा रखना चाहिए। उनके बचाव की या उनकी ओर से धर्मयुद्ध छेड़ने की कोई जरूरत नहीं है। हाँ, अशिष्ट और मर्यादा हीन टिप्पणी पर रोक आवश्यक है। जानबूझ कर ऐसी बात न बोली जाए, जिससे कोई दुःखी हो। पर ईश्वर को लेकर इतना छुई मुई भी न हुआ जाए।
अगर ईश्वर पर प्रश्न उठाना आस्तिक की आस्था का उपहास है तो इसी तर्क के अनुसार अपनी आस्था का सार्वजनिक प्रदर्शन (लाउडस्पीकर, कलश यात्रा, जगह-जगह मूर्ती स्थापना, चौराहे पर बकरा या ऊँट काटना, जुलूस के नाम पर शस्त्र और शक्ति प्रदर्शन....) भी नास्तिकों और अन्य धर्माबलम्बियों को आहत करने की श्रेणी में आ सकता है।
अतएव इस विषय पर सहिष्णु होना ही एकमात्र हल है। प्रतिपक्ष की उपस्थिति को स्वीकार करें, अन्य धर्मों की पूजोपासना पद्यति/ कर्मकांडों को भी बर्दाश्त करें।


अप्रैल 2017

हनुमान जयंती - ललितपुर का "लोकपर्व"

आज हनुमान जयंती है। त्योहारों से जुड़ी बचपन की यादों में यह दिन बार-बार याद आता है। बचपन में पिताजी सुबह से ही हनुमान जयंती के जुलूस में शामिल लोगों को शीतल जल पिलाने की व्यवस्था में लगे रहते थे। पानी की टंकी को साफ़ करना, केवड़ा और बर्फ डालकर जल को पीने योग्य बनाना....इत्यादि।
मुझे भी शाम का इंतज़ार रहता। मेरे लिए आकर्षण का केंद्र पानी की टंकी चौराहे पर होने वाली युद्ध कलाओं का प्रदर्शन रहता। मेरा यह भी अनुभव रहा है कि जुलूस में शामिल लोगों का उत्साह पानी की टंकी चौराहे पर सबसे ज्यादा तीव्र और मुखर हुआ करता था। चौराहे पर ही स्थित मेरे घर की छत पर सैकड़ो लोगों का जमावड़ा होता । किशोरावस्था तक आते-आते मैं भी पिताजी के साथ सबको पानी पिलाता। मुझे अच्छी तरह से याद है कि उस समय शीतल जल के इतने पंडाल नहीं लगा करते थे। फिर धीरे-धीरे जब हर दस कदम पर पंडालों में शर्बत परोसा जाने लगा तो पिताजी ने जल पिलाने की व्यवस्था बंद कर दी और ये ठीक भी है। जिस कार्य को समाज अपना ले, तो अपना मंतव्य पूरा हो जाता है।
आज फेसबुक मित्र Dharmendra Goswami जी ने अपनी वॉल पर इसे ललितपुर का "लोकपर्व" कहा है। निस्संदेह यह पर्व ललितपुर का लोक पर्व है। जिस तरह ललितपुर का जनसमुदाय तुवन मंदिर के प्रति अगाध श्रद्धा रखता है और इस जुलूस में शामिल होता है, वह बात इसे ललितपुर का लोकपर्व ही बनाती है। और यह बात ललितपुर से बाहर रहकर ज्यादा अच्छे से समझ आती है।

April 2017

तेज़ी से बहरे होते जा रहे समाज

हम तेज़ी से बहरे होते जा रहे समाज हैं :-
मुझे पिछले कुछ वर्षों से Tinitus है। ये वह बीमारी या अवस्था है जिसमें दिन - रात कानों में घंटी सी बजती रहती है। ठीक उसी तरह जैसे आपके पास पटाखा चल जाने के बाद कुछ देर तक चूँ...... की आवाज़ होती है। डॉक्टरों के अनुसार ये आगे चलकर बहरे होने का सूचक है।
मुझे सबसे पहले इसका पता लगभग 04 साल पहले उस समय चला था जब मैं अपने ऑफिस के शांत कमरे में बैठा था। काफी देर तक मुझे जब चूँ.... की आवाज़ सुनाई देती रही तो मैं इसे यूपीएस से आती आवाज़ समझता रहा। कुछ ही मिनटों बाद मुझे समझ आ गया कि ये आवाज़ कहीं और से नहीं बल्कि मेरे दायें कान से आ रही है। मैंने अपने कान के चिकित्सक मित्र Dranupam Mishra से संपर्क किया। उन्होंने बताया कि ये tinitus है और ये लगभग लाइलाज बीमारी है। उन्होंने मुझे इसे बर्दाश्त करने के कुछ तरीके बताये। मेरे पूछने पर ही बताया कि इसका कारण दवाओं का दुष्प्रभाव और तेज़ ध्वनि प्रदूषण हो सकता है। मुझे जाड़े की रातों में बहुत परेशानी होती है। इसके अलावा तेज़ ध्वनि में कान के परदे हिलने लगते हैं।
मेरा घर ललितपुर में बीच चौराहे पर है जो लंबे अरसे तक हाईवे भी था। दिन रात ट्रकों और वाहनों की चिल्ल-पो झेलना हमारे लिए सामान्य बात थी। रही-सही कसर सामने स्थित जरीना मोर सजावट बैंड ने पूरी कर दी जो गाहे-बगाहे अपने बैंड और डीजे का परीक्षण किया करते थे। उनकी कृपा से अल्ताफ रज़ा के कई गाने मुझे पूरे याद हो गए थे। मैं यदि ये लिखूँ कि धार्मिक उत्सवों पर चोरी की बिजली से बजने वाले लाउड स्पीकर का भी मेरे tinitus में पर्याप्त योगदान है तो इसमें अतिशयोक्ति न होगी।
अब भी मुझे ग्वालियर में सुबह शाम ऑफिस आते - जाते समय पड़ाव पुल से गुजरना पड़ता है जहाँ ध्वनि प्रदूषण मुझे बहुत परेशान करता है। शायद किसी अन्य तरह के प्रदूषण से ज्यादा। मेरे साथ चलने वाले लोग प्रायः ये शिकायत करते हैं कि मैं सड़क पर ड्राइविंग करते समय आवेशित और आक्रोशित रहता हूँ। प्रायः झगड़ता रहता हूँ। गाली देता और सुनता रहता हूँ।
मैं ये सब इसलिये लिख रहा हूँ क्योंकि मैं एक ऐसा समाज चाहता हूँ जिसमें अनावश्यक शोर न हो। सुना है सभ्य और विकसित पश्चिमी देशों में लोग बेवजह हॉर्न नहीं बजाते। पिछले साल अपने पडोसी मुल्क भूटान की यात्रा के दौरान मैंने स्वयं वहां के निवासियों की सभ्यता का अनुभव किया था। वहां के ड्राईवर भी हॉर्न सिर्फ बेहद आवश्यक होने पर ही बजाते हैं। मेरा दुःख ये है कि हमारे देश में दूर-दूर तक ये सम्भावना नज़र नहीं आती। हालात यहाँ तक बदतर हैं कि मैंने रेल के ड्राईवर को भी प्लेटफार्म पर पटरी पार कर अपनी जान जोखिम में डाल रहे लोगों को हटाने के लिए हॉर्न बजाते प्रायः देखा है।
हम चिल्ल-पों पसंद समाज हैं और दिनोदिन बहरे होते जा रहे हैं।

June 2017

हरितालिका व्रत कथा

मैं पिछले कई साल से तीज़ और करवाचौथ जैसे पितृसत्तात्मक और असमानतावादी त्योहारों के खिलाफ लिखता रहा हूँ।
घर पर आज भी तीज़ का त्यौहार मना। मैंने दिये जलाये, और छोटी सी झांकी सजाने में अपना योगदान दिया। बढ़िया पकवान बने थे मेरे सेवन को। यहाँ तक तो सब ठीक है। उसके बाद बारी आई मेरे कथा बांचने की। बस यहीं पर सारा जायका खराब हो गया। हरितालिका व्रत कथा नाम से जो किताब बाजार में बिकती है, उसका प्रिंट तो खराब है ही, उसमे लिखी और छपी कथा भी बेहद दोयम दर्ज़े की और तथ्य दोषपूर्ण है।
सोच रहा हूँ इसी कथा को कुछ सुधार करके ठीक हिंदी में लिख दूँ। थोडा सा कल्पना का समावेश करके अच्छी सी कथा बन सकती है। किसी के पास इस कथा का प्राचीन संस्करण है क्या?
जो बिक रहा है वो किसी लालची पंडे में लिखा है। उसे न जाने कहा से बर्फ से ढँके कैलाश पर्वत पर बरगद के पेड़ की छाँव मिल गयी। ऐसी ही न जाने कितनी बातें........ खीज में सर भन्ना रहा है।

Sep. 2017

"नानी के हाउस" जा रहे हैं।

राजधानी एक्सप्रेस के AC-2 डिब्बे में सामने की सीट पर एक युगल अपने 05-06 साल के पुत्र के साथ बैठा है। बातचीत, पोशाक और खाद्यान्न आदतों से किसी मल्टीनेशनल में कार्यरत युगल लगता है। राजधानी एक्सप्रेस में सफ़र करने के बावजूद "मैक डी" से बर्गर वगैरह पैक करा के चले हैं।
उनकी बातचीत से समझ आ रहा है कि वे बच्चे की "नानी के हाउस" जा रहे हैं। बच्चा भयानक हाइपर है। इतना हाइपर कि आधा कम्पार्टमेंट सिर पर उठाये हुए है। बात-बात में लोट जाता है और ओह माय गॉड करते हुए जोर-जोर से चीखने लगता है
सुशिक्षित माता-पिता शिष्टाचारवश शरमाये जा रहे हैं।
01 घंटे तक उस बच्चे ने अपने पर्सनल टैब पर तरह - तरह के वीडियो देखे हैं। बताने की जरूरत नहीं कि वीडियो के गीत का आनंद हम सहयात्रियों को भी मिला है।
फ़िलहाल वह ज़मीन पर लोट गया है और टमाटो सूप टीशर्ट पर मल लिया है। कह रहा है कि ट्रेन खड़ी क्यों हो गयी है।
अरे भाई कोई जल्दी से सिग्नल हरा करवाओ। उसके माता-पिता के साथ आधे डिब्बे के यात्रियों की यही मांग है।
बाकी आधा डिब्बा फ्लेक्सी फेयर के कारण खाली है।

August 2017

करवाचौथ की मुबारकवाद

इधर कुछ दिनों से एक बात बार-बार महसूस हो रही है कि फेसबुक पर लिखने का कोई लाभ नहीं है। हम समय के उस दौर में आ पहुंचे हैं, जहाँ हर ऐरा गैरा नत्थू खैरा अपने आप को जलालुद्दीन मुहम्मद अकबर समझ बैठा है। आप चाहे जितनी तथ्यात्मक या तार्किक बात लिखो, उन्हें आपकी बात फूटी आँख नहीं सुहाती।
यहाँ तक कि उनकी नज़रों में आपकी निजी मान्यताओं और विचार प्रक्रिया का भी कोई स्थान नहीं है। ज्यादा साफ़-साफ़ लिखने की कोशिश करो तो तत्काल समाज विरोधी, धर्म विरोधी और राष्ट्र विरोधी होने का तमगा तैयार है
पिछले साल तक मैं करवाचौथ जैसे नितांत मर्दवादी त्यौहार के खिलाफ आराम से लिखा करता था। मेरी नज़र में ये त्यौहार स्त्री को हीन और पुरुष को देवता के पद पर ला बैठाता है। पर इस वर्ष मैं ऐसी कोई देशद्रोही टाइप बात नहीं लिखूंगा।
तो भारत देश की समस्त नारियों को करवाचौथ की मुबारकवाद। दिन भर भूखी रहो पर घर भर के लिए पकवान बनाओ। घर की साफ़ सफाई भी रोज़ की तुलना में ज्यादा करो। दोपहर तक काम निपट जाए तो घर के आँगन या दरवाज़े पर रंगोली बनाओ। शाम से ही सजना शुरू कर दो ताकि पूजा के समय तक रात का खाना भी बन जाए। उसके बाद करवाचौथ की महान संस्कारी कथा सुनो। ऐसी कथाओं में ही तो हमारी संस्कृति का सार छुपा है। रात को चाँद के निकलने पर ही जल ग्रहण करना। चाहो तो करण जौहर की फिल्मों से आईडिया ले सकती हो। पूजा निपटा कर बैडरूम में टीवी का रिमोट हाथ में लेकर पसरे हुए पति परमेश्वर के पैर छू लो। आखिर तुम्हारा सब कुछ इन्हीं चरणों में ही तो है।


 Sep. 2017

Film- secret superstar

मेरे बी.ए. के पाठ्यक्रम में हेनरी इब्सन का बहुत प्रसिद्द नाटक "A doll's house" था, जिसके अंत में उसकी प्रमुख पात्र "नोरा" अपने पति के घर को छोड़ देती है और बाहर जाते समय दरवाज़े को जोर से बंद करते हुए चली जाती है। 1870 में यह नाटक डेनमार्क में मंचित हुआ था और उस समय इसे महिला सशक्तिकरण विषय पर एक क्रांतिकारी हस्तक्षेप माना गया था। यह दुर्भाग्य ही है कि लगभग 150 साल गुजर जाने के बाद भी लाखों - करोड़ों महिलाओं के लिए आज भी यह नाटक प्रासंगिक है।
कल रिलीज़ हुई आमिर खान की फ़िल्म secret superstar बहुत बारीक़ी से कई विषयों को छूती है। फ़िल्म की एक प्रमुख पात्र जब अपने पति के हाथ में तलाक़ के कागज़ रख देती है, तो वह इब्सन की नोरा ही नज़र आती है। और फ़िल्म के अंत में जब इसकी 15 वर्षीय मुख्य पात्र अपने बुरखे को उतार फेंकती है, तो उसका सन्देश बहुत गहरा और स्पष्ट है।
जानता हूँ कि सिर्फ बुरखा उतार फेकना ही क्रांति नहीं है, लेकिन फिर भी ये एक बड़ा प्रतीक है। महिलाओं , विशेषकर मुस्लिम महिलाओं का पुरुष नियंत्रित जीवन किसी से छुपा नहीं है, ऐसे में आमिर खान ने बेहद साहस के साथ उस बात को सिनेमा की भाषा में कहा है जिसे लोग कहने और लिखने से बचते हैं। धर्म, परंपरा, मर्यादा, लज़्ज़ा नामक बेड़ियां प्रायः महिला के पैरों में ही दिखाई देती है। यह फ़िल्म हमें जहाँ एक ओर ये बताती है कि उन बेडियों को कैसे तोडना है, वही दूसरी ओर यह भी बताती है कि भविष्य के बच्चे कैसे होंगे।
सभी सिनेप्रेमी मित्र आमिर खान की इस फ़िल्म को जरूर देखें, और वे भी देखें जो आमिर के कुछ अलग कारणों से आलोचक रहे हैं।

Oct. 2017

नैतिकता और संस्कार की घुट्टी

समाज सुधार के हमारे अब तक के प्रयास महिलाओं - लड़कियों की आचार संहिता तक करने तक सीमित रहे हैं। हर घटना के बाद यही नसीहत दी जाती है कि लड़की को ऐसा नहीं करना था-वैसा नहीं करना था - यहाँ नहीं जाना था - ऐसे कपडे नहीं पहनने थे- लज्जा महिलाओं का गहना है - ब्ला - ब्ला …....
....पर इसका कोई ज्यादा लाभ दिखाई नहीं दिया है। निर्भया के बाद भी घटनाएं बदस्तूर जारी हैं। दुधमुंही बच्चियों के साथ बलात्कार की न जाने कितनी घटनाएं सामने आ चुकी हैं। 02 दिन पहले किसी विकृत मानसिकता ने 100 वर्ष की बुजुर्ग महिला के साथ बलात्कार कर दिया। और राह चलती लड़कियों को घूरती आँखे हमारी राष्ट्रीय सभ्यता बन गयी है।
नैतिकता और संस्कार की घुट्टी हमारे समाज पर अब प्रतिरोधी (resistant) हो गयी है। न ही हमारा स्वर्णिम भूतकाल, न ही धार्मिक आख्यान और न ही नैतिक उपदेश काम आ रहे हैं।
हमें इस स्थिति में सुधार लाने के लिए अपने उपचार की पद्यति को बदलना होगा। हमें अपने लड़कों को सुशिक्षित और संस्कारित करना पड़ेगा कि उन्हें स्त्रियों से कैसे पेश आना चाहिए। जिस तरह हमारी माएँ लड़कियों को ससुराल के लिए मानसिक रूप से तैयार करती हैं, उसी तरह लड़कों को भी प्रशिक्षित करने पर कुछ बेहतर परिणाम देखने को मिल सकते हैं।.......

Nov. 2017

पदमावती राष्ट्रमाता

अरे यार, कंफ्यूज नहीं करो!
अब कह रहे हो कि पदमावती राष्ट्रमाता हैं।
लगे हाथ ये भी बता दो कि राष्ट्र बहिन, राष्ट्र बुआ, राष्ट्र मामी, राष्ट्र चाची, राष्ट्र सास, राष्ट्र ताऊ,राष्ट्र चाचा, राष्ट्र मामा, राष्ट्र ससुर, राष्ट्र गुरु, राष्ट्र गुरुमाता कौन है!
राष्ट्र हित को ध्यान में रखते हुए आवश्यकतानुसार राष्ट्र चमचा, राष्ट्र बखलोल, राष्ट्र चिरकुट भी घोषित किये जा सकते हैं।
बेहतर होगा कि यह अत्यावश्यक काम संसद का विशेष सत्र बुलाकर कर लिया जाए। राष्ट्र निर्माण की दिशा में यह सबसे बड़ा काम साबित होगा।

क्रिश्मस का विरोध या मानसिक दीवालियापन?

क्रिश्मस का विरोध या मानसिक दीवालियापन? -----

मनुष्य चाहे तो उसका विस्तार अंतरिक्ष सा हो सकता है। गौतम बुद्ध, विवेकानंद, गाँधी, ......... जैसे उदाहरणों की कोई कमी नहीं है हमारे देश में।
उसी के विलोम में क्षुद्रता की भी कोई सीमा नहीं है। ये पतन इस सीमा तक हो सकता है कि अपने आप में नाभिकीय बिखण्डन का सिद्धांत शरमा जाए। संकुचित व्यक्ति सिर्फ राष्ट्र, धर्म, जाति, कुटुंब, परिवार की सीमा तक ही सीमित नहीं रहता। वह उससे भी नीचे जाकर अंततः नितांत स्वार्थी ही साबित होता है।
जो आज हिन्दू के संगठित होने की चिंता में घुले जा रहे हैं, वे मौका मिलते ही अव्वल दर्ज़े के जातिवादी भी साबित होते हैं और चुनाव के वक़्त अपनी जाति के लफंगे, दुष्ट, लोभी, भ्रस्टाचारी को भी वोट दे आते हैं। ऐसा करते समय न तो उन्हें अपने राष्ट्र की चिंता सताती है न धर्म की....
भारत जैसे विविधतापूर्ण देश को एक रंग में रंगने का स्वप्न ही देशद्रोह है।