Tuesday 24 May 2011

दर्द अब उतना नहीं रहा।

           बच्चे के चश्मे के नंबर को हर छह माह में बढ़ते हुए देखना बहुत कठिन एहसास होता है। चश्मे का लगातार बढ़ता नंबर हर बार यह सिद्ध करता जाता है कि हमारे हाथ में प्रकृति के विरुद्ध लड़ने के लिए कोई हथियार नहीं है। सिर्फ सहते रहना ही हमारी नियति है और दर्द को सहने की आदत डाल कर यह समझते हैं कि दर्द अब उतना नहीं रहा। दर्द का बार-बार कुरेदा जाना उसे नासूर बना देता है। हर छह माह या सालभर में चश्मे का नंबर बढ़ना ऐसा ही एक नासूर है।
    उसे किन शब्दों में समझाया जाए कि उसे अब लगातार धुंधलाती हुई आँखो के साथ ही जीने का अभ्यास करना होगा। हर छह माह में उसे एक ऐसी सजा झेलनी पड़ती है जिसमें उसका कोई दोष नहीं है। दोष तो हमारा भी नहीं है जिनके डी.एन.ए या जीन्स पाकर उसे ‘मायोपिया’ या निकट दृष्टि दोष हुआ है। अपराध तो प्रकृति का ही है जो निरंतर इस तरह की दुर्घटनाओं के द्वारा ही अपने सर्वोपरि होने और अपने समक्ष मनुष्य के लाचार होने को सिद्ध करती है।   
           अभी उसने ठीक से दूध को बोतल भी नहीं छोड़ी थी, अपने निष्पाप बचपन को ठीक से प्राप्त भी नहीं किया था, उसके पर खुलने को ही थे कि उसके आँख रूपी मोती अपनी चमक खोने लगे थे। हम भी यही समझते रहे कि बच्चा नींद में आने के कारण आंखों को रगड़ कर लाल कर रहा है। अपनी कीचड़ भरी सुर्ख आँखों को वह रो - रो कर और सुर्ख कर रहा होता था और हमें लगता कि वह जिद्दी हो रहा है। दरअसल उसकी आंखे ही जबाव दे रही थीं। उसे तो पता ही नहीं चल पाया कि नंगी आँखों से आखिर कितनी दूर तक साफ देखा जा सकता है जो वह कम दिखने की शिकायत करता। वह यह भी बता नहीं सका कि धुंधला दिखने के कारण उसे दूर से आती बॉल ठीक से नहीं दिखती और कैच छूट जाता है। उसे यह भी नहीं मालूम कि आँख से ही देखा जाता है और संभवतः यह सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण अंग है। कहते हैं हाथी को अपनी छोटी आँखों से महावत बड़ा दिखता है और वह उससे डर कर नियंत्रित होता रहता है। कुछ ऐसा ही भ्रम होता होगा उसे भी।
     कम उम्र में चश्मे को नाक पर साधे रहना पैर में पड़ी भयानक बेड़ी के ही समान है। दौड़ते, कूदते, कुलाचे भरते, लड़ते, नहाते, सोते-जागते वक्त लगभग हर समय सिर्फ एक ही चीज याद रखनी है कि चश्मा गिर कर टूट न जाये। अब यह चश्मा ही उसका सबसे नजदीकी साथी है, एक तरह से उसके शरीर का एक अंग, पर उसे इससे प्रेम न होकर घृणा है। बंधन आखिर किसी को कहां अच्छा लगता है। बंधन भी ऐसा-वैसा नहीं। दिनभर खेलते रहना ही बच्चे को सर्वाधिक प्रिय होता है। इतना प्रिय कि खेलकूद के आगे बाकी सभी चीजें बेमानी हो जाती हैं। खेलते समय भूख-प्यास, गर्मी-सर्दी आदि तमाम एहसास भी दबे रहते हैं। और चश्मा एक ऐसा बंधन है जो बच्चे को स्वच्छंदता पूर्वक खेलने में सबसे अधिक बाधा पहुँचाता है, और इस तरह यह उसका सबसे बड़ा शत्रु होता है। आस्तीन में पले हुए साँप की ही तरह।
    विकलांगता का एहसास कैसा होता होगा, हम सिर्फ अनुमान ही कर सकते है। बहुत कठिन है स्वयं को दूसरे बच्चों से धीमा दौड़ते हुये देखना तथा बार-बार पीछे रह जाना। हमउम्रों से झगड़ते समय बार- बार हार का सामना करना क्योंकि आधा ध्यान चश्मे को टिकाये रखने पर होता है। खिसयाहट में चश्मे को फेंक कर दौड़ने को मन करता है पर रास्ते के गड्ढे ठीक से न दिख पाने के कारण गति धीमी हो जाती है। चश्मे का व्यक्तित्व पर ऐसा नकारात्मक प्रभाव कि अपने को हीन मानने को विवश होना ही पड़ता है। हारने का एहसास व्यक्तित्व में स्थायी भाव ग्रहण कर लेता है। समझने की तो उसकी उम्र ही नहीं है पर बहला-फुसलाकर भी कब तक काम चलेगा। हमारा यह समझाना कि बड़ा होने पर एक ऑपरेशन के बाद चश्मा उतारा जा सकता है, बेमानी है क्योंकि तब तक उसका यह अमूल्य बचपन बीत चुका होगा। इस घाटे की कभी कोई भरपाई नहीं हो सकती।
     मेरी ही आंखें क्यों खराब है? प्रश्न का उत्तर न तो हमारे पास है न डॉक्टर के पास। सभी अपने-अपने तरीकों से बहलाते रहते हैं और इस तरह झूठ से उसका पहला परिचय हो रहा है। मेरा चश्मा कब उतरेगा?, तुमने तो कहा था कि गाजर और आँवला खाने से चश्मा उतर जाएगा, पर मेरा तो नहीं उतरा?, क्या तुमने झूठ बोला था?, क्या बचपन में तुम भी चश्मा लगाते थे? जब मैं बड़ा हो जाऊंगा तो क्या चश्मा उतर जाएगा? आदि अंतहीन प्रश्नों के उत्तर हमारे पास न कभी थे और न होंगे। उसको किन शब्दों में समझायें कि अब उसे जीवन भर इस चश्मे रूपी दैत्य का बोझ अपनी छोटी सी नाक पर ढोना है और जैसे-जैसे वह बड़ा होता जायेगा, यह दैत्य भी अपना आकार और वजन बढ़ाता जायेगा। हमें शायद उस वक्त का इंतजार है जब वह प्रश्न ही पूछना बंद कर दे और चश्मा पहनने की आदत डाल ले और हम समझ कर अपने को दिलासा दे सकें कि दर्द अब उतना नहीं रहा।……………..