Monday 24 September 2018

जाति, धर्म, लिंग, राष्ट्र के बंधनों से मुक्त व्यक्ति ही मुझे प्रभावित करते हैं।

मेरा मानना है कि बड़े लोगों (रसूखदार, धनाढ्य या सेलिब्रिटी) को उनके बड़े काम से नहीं बल्कि उनके छोटे - छोटे कार्यों से परखना चाहिए। इसके उलट छोटे और सामान्य जन को उनकी छोटी-बड़ी अभिलाषाओं से नहीं बल्कि उनकी नीयत या त्याग भावना से परखना चाहिए।
इसके बावजूद इंसान इतनी विचित्र रचना है कि प्रतिपल उसका स्वभाव बदलता रहता है। उसकी इच्छाएं, नीयत, तथा कार्य करने का तरीका उसके सामाजिक व्यवहार को तय करती हैं। इसके अलावा आदमी को उसकी संगत एवं अभिरुचियों से भी पहचाना जा सकता है। उसकी मित्र मंडली में कौन लोग शामिल हैं, तथा खाली वक़्त में वह क्या करता है, यह अपनेआप में इसके व्यक्त्वि को खोलकर रख देता है। यह भी ग़ौरतलब है कि फेसबुक पेज भी किसी के व्यक्तित्व का परिचायक है। वह किन विचारों का पोषण करता है, तथा उसकी सोच कैसी है, इसकी एक झलक उसके सोशल मीडिया पेज से पता चल जाती है।
जहाँ तक मेरी बात है, मैंने अपने आसपास के इंसानों को परखने के लिए कुछ कसौटियां तय कर रखी हैं -
1. वह मुझसे कैसा व्यवहार करता है, ये जरूरी नहीं, वह मेरे सामने अन्य लोगों, विशेषकर कनिष्ठ लोगों से कैसा व्यवहार करता है?
2. उसकी अभिरुचि क्या है? धन अर्जन को ही अपने जीवन का अभीष्ट समझने वाले मुझे प्रभावित नहीं करते।
3. क्या वह अपनी जाति/धर्म से ऊपर उठकर सोच पाता है? मुझे वे सवर्ण पसंद नहीं जो दलितों को हीन मानें और सिर्फ अपने ही हित को साधें। साथ ही मुझे हर बात में अपने को दलित और बेचारा घोषित करने वाले भी पसंद नहीं।
4. मुझे वे हिन्दू भी प्रभावित नहीं करते जो किसी अन्य धर्मावलंबी से नफरत करते हों। अन्य धर्मों के अनुयायियों पर भी यही बात लागू है।
कहने का मतलब ये है कि आप परिपक्व तभी कहलायेंगे, जब जाति, धर्म, लिंग, राष्ट्र से ऊपर उठकर मनुष्य बनेंगे। इन बंधनों से मुक्त व्यक्ति ही मुझे प्रभावित करते हैं।

सि‍तंबर 2018

पंडित जी (प्रोफेसर ओ.पी.मालवीय) को आखि‍री वि‍दाई

इलाहाबाद के उनके घर के बड़े से अध्ययन कक्ष में मार्क्स और लेनिन के साथ ही महात्मा गाँधी, तुलसीदास और विवेकानंद की तस्वीरें फ्रेम में जड़ी हुई थीं। कमरे की दीवारों पर सजीं सैकड़ों पुस्तकों को पलटते हुए कभीकभार 100/- रुपये का नोट भी मिल जाता था।
कहने को तो पंडित जी (प्रोफेसर ओ.पी.मालवीय) इलाहाबाद विश्वविद्यालय में अंग्रेजी विषय के प्रोफेसर थे। पर संस्कृत, इतिहास, हिंदी साहित्य पर भी उनका उतना ही अधिकार था।
उन्होंने अपने जीवन के 40 वर्ष गुजर जाने के बाद शास्त्रीय संगीत सीखना शुरू किया था। मेरे इलाहाबाद पहुंचने तक वे पारंगत शास्त्रीय गायक बन चुके थे। वे निश्चय ही वामपंथी थे। प्रगतिशीलता किसे कहते हैं, उनका जीवन देखकर ही समझा जा सकता है। इलाहाबाद के दक्षिणी भाग में, जहां उनका निवास था, सैकड़ों वृक्ष उन्होंने लगाकर बड़े किये। हम सभी छात्र उनके नेतृत्व में सुबह-शाम दरियाबाद के कब्रिस्तान में पेड़ों को पानी डालने जाते थे। पंडित जी ने उस कब्रिस्तान में ऐसी हरियाली ला दी कि आसपास के लोग वहाँ टहलने आने लगे थे। पंडित जी उस कब्रिस्तान को गुलिस्तान कहते थे। उनकी आय का एक बड़ा हिस्सा सामाजिक सरोकारों पर खर्च होता था।
इत्तफ़ाक़ से जिस दौर में मैं इलाहाबाद अध्ययन हेतु पहुंचा था, वह दौर बाबरी कांड के बाद साम्प्रदायिक आग में झुलसा हुआ था। इलाहाबाद में साम्प्रदायिक माहौल को बचाये रखने और शांति स्थापित करने में पंडित जी की सक्रिय भूमिका थी। मुस्लिम उन्हें इज़्ज़त की निगाह से देखते थे।
आज मैं जिस हैसियत पर हूँ, वह सब पंडित जी की दी हुई है। ललितपुर से कच्ची मिट्टी जैसा गया था, पंडित जी ने उसे सांचे में ढाल कर आकार दिया। माता-पिता ने तो मुझे जन्म ही दिया था, पंडित जी ने मनुष्य बनाया। 06 वर्ष उनके सानिध्य में रहा। उन्हें स्कूटर पर बैठा के पूरा इलाहाबाद नापता था। वे जिस गोष्ठी में जाते, मैं उनके साथ रहता। उनके सानिध्य में ही रंगमंच से परिचित हुआ। न जाने क्या-क्या देखा, समझा, सीखा। उनका साथ रोज़ किसी नई पुस्तक को पढ़ने जैसा होता।
कल शाम उनका फोन आया था। वे पिछले चार-पाँच दिन से मुझसे बात करना चाहते थे। फोन मिलते ही बोले कि 'मैं तुम्हारी पोस्ट देखता रहता हूँ और पर्यावरण प्रदूषण के प्रति तुम्हारी चिंता देखी। मुझे बहुत खुशी है। मुझे जुकाम है इसलिए ज्यादा बात न कर पाऊँगा। खुश रहो। " मुझे क्या पता था कि वे जाते-जाते मुझे आशीर्वाद देना चाहते थे।
आज रात पंडित जी 85 वर्ष की आयु में इस संसार से अलविदा हो गए हैं। वे देहदान का संकल्प लेकर गए हैं। मुझे नहीं पता कि ऐसा क्या कम हो गया है मुझमे। पर दिल भारी है। उनके बाद वे वृक्ष ही साया हैं जो उन्होंने रोपे थे। ....
पंडित जी अंतिम प्रणाम आपको......आपका शतांश बन सका तो ये जीवन सफल समझूंगा।

 17 सि‍तंबर 2018

जलाशयों में विसर्जित की जाने वाली प्रतिमाएं

सौभाग्य से पूरे देश भर में इस वर्ष अच्छी बारिश हो गयी है। ग्वालियर जैसा अल्पवृष्टि वाला इलाका भी हरियाली की चादर ओढ़े हुए है। नदी-तालाब-बांध-पोखर भरे हुए हैं।
अब त्योहारों का मौसम आ गया है। यहीं से मेरी चिंता शुरू होती है। जगह-जगह पी ओ पी से बने गणेश जी बिक रहे हैं। प्रशासन की चेतावनी के बावजूद पी ओ पी के गणेश जी बन और बिक रहे हैं। कुछ ही दिनों में ये सारी प्रतिमाएं आस-पास के सभी जलाशयों में विसर्जित कर दी जाएंगी। पूरी बेशर्मी से हम जलाशयों को तबाह करके आएंगे। जो थोड़ी कसर बचेगी, वो अगले माह "माता जी" की प्रतिमाएं पूरी कर देंगी।
भस्मासुर बने इंसान को कौन समझा सकता है भला? वैसे भी मामला इन दिनों संख्याबल से तय होता है। दो-चार अर्बन नक्सली टाइप बुद्धिजीवी कितना भी चीख लें, इन जलाशयों में विसर्जित की जाने वाली प्रतिमाएं हर वर्ष बढ़ती ही जा रही हैं।
जब तक थक नहीं जाता, हर साल इस कुप्रथा की आलोचना करता रहूँगा। आप लोग भी हर साल की तरह मेरे विधर्मी और नास्तिक होने की आलोचना कर सकते हैं।

- सि‍तंबर 2018

आस्तिक को सब पहले से पता है

आस्तिक को सब पहले से पता है, उसके पापा बता गए हैं। उसे बचपन से ही सब पता है।
नास्तिक बचपन से ही पढ़ने में कमज़ोर रहा। उसके पापा भी उससे बात ही नही करते थे सो वह बड़ा होकर भी संदेह के घेरे में है।
आस्तिक को सब पता है सो वह प्रसन्न है। उसे कोई दुःख नहीं है। वह हर समय अपने आप को परमात्मा की गोद मे बैठा हुआ पाता है।
नास्तिक को कुछ नहीं पता, वह अभी पहली कक्षा में है। पढ़ाई में अच्छा निकला तो स्नातक उपाधि धारी नास्तिक बन सकता है। पर बेचारा परेशान है, इस विषय को पढ़ाने के लिए गुरु जी ही नही मिल रहे। एक मिले थे जो कक्षा में बड़ी-बड़ी फेक रहे थे, सोमवार को पिंडी पर जल चढ़ाते हुए पकड़े गए।
आस्तिक को लोक का भी ज्ञान है, परलोक का भी। उसे पता है कि स्वर्ग में अप्सराएं मिलेंगी और नरक में तेल के कढाये। उसे पता है कि स्वर्ग में अमृत बटता है और नरक में दारू - जुए के अड्डे हैं। आस्तिक इसलिए हमेशा स्वर्ग ही जाना चाहता है। बल्कि जुगाड़ में रहता है कि सीधे मोक्ष का ग्रीन कार्ड बन जाये।
नास्तिक ससुरा कुछ तय नहीं कर पाता। उसे कामुक अप्सराएं भी लुभाती हैं और दोस्तों के साथ मदिरापान और ताश के पत्ते भी।
आस्तिक को नैनो टेक्नोलॉजी, आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस, क्वांटम फिजिक्स का भी ज्ञान है और वह सेलुलर माइक्रोबायोलॉजी का भी बड़ा ज्ञाता है। इसके पूर्वज तो अंतर्ध्यान होने और अगले ही पल दुनिया मे कहीं भी प्रकट होने की कला जानते थे। मध्यकालीन आक्रांताओं के कारण कुछ ज्ञान विलुप्त हो गया है। वह कैंसर होने पर रेडियोथेरेपी नही कराता, महामृत्युंजय मंत्र का जाप करता है। बच जाने पर प्रभु को धन्यवाद देता है, निपट जाने पर स्वर्ग के आनंद लेता है।
नास्तिक को कुछ नही पता। वह सारे ज्ञान-विज्ञान की समझ होने का दावा करता फिरता है, लेकिन जानता कुछ भी नहीं है। कई बार तो वह अपनी ही किसी खोज को कुछ दिन बाद खारिज़ कर देता है और फिर वहीं पहुंच जाता है,जहां से चला था। कैंसर होने पर वह वेबकूफ अस्पतालों के चक्कर लगाता फिरता है।
आस्तिक सदाचारी है, पुण्यात्मा है, चोरी नहीं करता, झूठ नही बोलता, लड़कियों को देवी मानता है, दहेज़ नहीं लेता, रिश्वत नहीं लेता।
नास्तिक चोर है, कमीना है, झूठा है, लड़कियां छेड़ता है, दहेज़ लेता है, भ्रस्टाचारी है।
बड़े दुःख की बात है, यह दुनिया नास्तिकों से भरी हुई है।

- जुलाई 2018

निर्विकार चेतना या अमन (मन का विचार शून्य होना) की अवस्था ही "ध्यान" है। - बुध्द

निर्विकार चेतना या अमन (मन का विचार शून्य होना) की अवस्था ही "ध्यान" है। - बुध्द
वेदांत यह मानता है कि आत्मा, परमात्मा और पुनर्जन्म है। इसलिये वेदांती के मन के लिए ध्यान असंभव है। क्योंकि वहाँ पहले से ही इतना कुछ भरा हुआ है कि अमन की अवस्था या शून्य या निर्वात संभव नहीं है।
अतः ध्यान की अवस्था बुद्ध के यहाँ ही संभव है।
इस विषय पर और प्रकाश डालता हुआ मित्र Sanjay Shramanjothe का पठनीय आलेख प्रस्तुत है। बस जरा धीरे-धीरे पढ़िए और अपने मन को पूर्वाग्रह से मुक्त होकर पढ़िए।
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गौतम बुद्ध के लिए अनत्ता या स्व सहित व्यक्तित्व की हीनता को सरल भाषा में फिर से रख रहा हूँ ... यह अनत्ता बौद्ध धर्म की सबसे गहन और आवश्यक अनुभूति है।
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गौतम बुद्ध मन या व्यक्तित्व या आत्मा को एक स्वतन्त्र इकाई की तरह नही देखते। बुध्द शरीर को भी चार महाभूतों से बना हुआ मानते हैं और मन को भी स्मृतियों, कल्पनाओं, शिक्षा, सामाजिक कन्डीशनिंग आदि से मिलकर बना हुआ मानते हैं। इसी कारण मृत्यु के बाद जैसे शरीर बिखर जाता है वैसे ही मन भी अपने टुकड़ों में बिखरकर खो जाता है।
शरीर और मन के ये ही टुकड़े अन्य सैकड़ों हजारों गर्भ में प्रवेश करते हैं और उस नए जीव के शरीर और मन को बनाते हैं। जैसे एक जीव के मरने पर उसका शरीर मिट्ठी में मिल जाता है और फिर घास पत्तों पेड़ों द्वारा खाया जाता है फिर उसे दुसरे जीव अपने शरीर में ले लेते हैं। ऐसा ही मन के साथ भी होता है। इसका ये अर्थ है कि एक आदमी का मन मरने के बाद सैंकड़ों मनों के निर्माण में ईंट सीमेंट की तरह इस्तेमाल हो जाता है।
इसीलिये अगला जीव या बच्चा पहले मर चुके अनगिनत लोगों के मन से थोड़े थोड़े टुकड़े चुनकर निर्मित होता है। उसका शरीर भी पिछले हजारों लोगों के मृत शरीर के उन अंशों से बनता है जो प्रकृति में मिल गए हैं। आधुनिक जीव विज्ञान या बायोलॉजी में इसे भोजन चक्र या खाद्य श्रृंखला के अर्थ में समझाया गया है।
इस तरह बुध्द का यह कहना है कि जिस शरीर को आप अपना कहते हैं वो अन्य शरीरों के अवशेषों,भोजन, पानी और खनिजों से मिलकर बना है। और जिस मन व्यक्तित्व या स्व को आप आत्मा कहते हैं वह अन्य हजारों लोगों के बिखर चुके मन के टुकड़ों का गठजोड़ है। इसीलिये जो लोग पुनर्जन्म का दावा करते हैं वे ये नही समझा पाते कि हर आदमी को अपने जन्म याद क्यों नही रहते।
ओशो रजनीश जैसे वेदांती बाजीगर कहते हैं कि इसी जन्म की बातें याद नहीं रहतीं तो पूर्वजन्म की कैसे रहेंगी, इसलिए पूर्व जन्म की याद न होने का मतलब यह नहीं कि वह होता नहीं। यहां रजनीश पृकृति की समझ को चुनौती दे रहे हैं, उनकी मानें तो प्रकृति मूर्ख है। अगर शंकराचार्य या रजनीश के अनुसार पुनर्जन्म सच में ही होता तो करोड़ो साल के उद्विकास में प्रकृति कोई रास्ता ढूंढ ही चुकी होती उसे याद दिलाने का।
अब जैसे कोई डाक्टर मरता है, अगले जन्म में फिर से डाक्टर पैदा नहीं होता, अगर पुनर्जन्म है और व्यक्तित्व सहित मन की निरन्तरता सत्य है तो उस डाक्टर को अगले जन्म में दुबारा मेडिकल कालेज क्यों जाना होता है? चलो ये भी मान लिया जाय कि पूरी स्मृति आना कठिन है तो भी रुझान और पसन्द तो वही रहनी चाहिए ना? पुनर्जन्म मानने वाले खुद कहते हैं कि हर जन्म में जाति कुल व्यवसाय रूचि और लिंग बदल सकता है।
अब ये बड़ा मजाक है। प्रकृति इतनी मूर्ख नहीं हो सकती। अस्सी साल जो तैयारी करवाई उसे अगले जन्म में भी जारी रहना चाहिए, यही कॉमन सेन्स है। अगर यह जारी नहीं रहती या कुदरत खुद इसे जारी नहीं रख रही तो इसका मतलब है कि ऐसी कोई निरन्तरता होती ही नहीं है।
वेदांत या रजनीश स्टाइल व्याख्या से इस गुत्थी को सुलझाना असंभव है। ये गुत्थी बुद्ध और कृष्णमूर्ती ही सुलझा सकते हैं। बुद्ध के अनुसार मृत्यु के बाद बिखरकर पुनः अन्य हजारों टुकड़ों को शामिल करके संगठित होने वाले शरीर और मन को तैयार होने में एक ख़ास समय लगता है। यही गर्भ और बचपन का समय है। इस काल में नए संगठित हो रहे मन के हजारों टुकड़े आपस में सामन्जस्य बैठा रहे होते हैं इसलिए उस बच्चे का कोई एक व्यक्तित्व नहीं होता।
बुद्ध के अनुसार चूँकि हर जन्म नये व्यक्ति का जन्म होता है और कोई आत्मा या स्व नही होता इसलिए उसमे निरंतरता हो ही नही सकती इसीलिये करोड़ों करोड़ लोग अपने पिछले जन्म को नही जान सकते क्योंकि वो होता ही नही है। करोड़ों में एक आदमी को कोई याददाश्त बनी रहती है कि फलां साल पहले किसी गाँव में वो फलां जगह था या इसका पिता या उसका बेटा था। बुद्ध के अनुसार ऐसी स्मृति सम्भव है।
बुद्ध समझाते हैं कि किसी किसी गर्भ में किसी अन्य मर चुके आदमी की स्मृतियों का बड़ा टुकड़ा प्रवेश कर जाए तो अगला बच्चा इन स्मृतियों को देखकर बताने लगता है। इसे ही गलती से पुनर्जन्म का सबसे बड़ा सबूत बता दिया जाता है।
ये ऐसा है जैसे किसी मर गए इंसान के पाँव या हाथ काटकर किसी दुसरे में लगा दिए जाएँ। ये हाथ पैर नए शरीर में जिन्दा रहेंगे लेकिन वो नया आदमी पुराने का पुनर्जन्म नही है। क्योंकि हाथ पैरों के आलावा अन्य अंग उसने न जाने कितने दुसरे मर चुके लोगों के शरीर से लिए हैं।
इस अर्थ में न केवल आत्म या स्व बल्कि यह प्रतीयमान व्यक्तित्व भी हजारों अन्य टुकड़ों का जोड़ है, कोई मैं संभव ही नहीं है, यह सिर्फ एक आभास है। चूँकि कोई ठोस मैं नहीं है, सब टुकड़ों के परे एक खाली आकाश या शून्यता है इसीलिये ध्यान संभव है। ध्यान का संबन्ध सिर्फ अनत्ता से ही जुड़ता है। जो धर्म आत्मा परमात्मा में यकीन रखते हैं वे न तो ध्यान की कल्पना कर सकते हैं न उसकी वैज्ञानिक व्याख्या कर सकते हैं।
निर्विचार चेतना या अमन की अवस्था को ध्यान कहा गया है, अर्थात यह ध्यान ऐसे दर्शन से उपजा है जहां मन या स्व के शून्य हो रहने की सबल प्रतीति रही है। और ऐसा सिर्फ बुद्ध के धर्म में हुआ है। वेदांत के लिए न सिर्फ मन सत्य है बल्कि आत्मा और परमात्मा सहित पुनर्जन्म भी सत्य है।
इसीलिये वेदांती मन के लिए ध्यान असंभव है, वहां इतना कुछ भरा हुआ है कि अमन या निर्वात संभव ही नहीं है। इसीलिये वेदांती लोग थोड़ी देर तक एकाग्रता मन्त्र तन्त्र आदि करके भक्ति या लय योग में घुस जाते हैं जो कि महावीर और बुद्ध के लिए असम्यक ध्यान हैं। ये होश का नहीं लीनता और मदहोशी का मार्ग है यह जड़ और काष्ठ समाधि का मार्ग है। इसमें सहज बोध यानी कॉमन सेंस बढ़ता नहीं बल्कि घटता जाता है।
इस वृहत्तर अर्थ में बुद्ध न केवल आत्मा और पुनर्जन्म को ख़ारिज करके सामाजिक और मनोवैज्ञानिक कन्डीशनिंग को भी खत्म कर देते हैं बल्कि वे मन शरीर चेतना और संस्कारों के स्तर पर इकोलॉजी या परस्पर निर्भरता के एक नए विज्ञान को भी जन्म दे देते हैं। अर्थात सभी के शरीर और मन एकदूसरे पर निर्भर हैं इसीलिये सबकी चेतना शरीर और मन आपस में जुड़े हैं। इसीलिये सब प्राणियों में समानता भाईचारा और प्रेम होना चाहिए।
इसी से बुद्ध की लोकमंगल और मंगलमैत्री की धारणा जन्म लेती है। यही कारण है कि इस निष्पत्ति तक आते ही बुद्ध ने हिंदुओं की वर्ण और जाति व्यवस्था को नकार दिया और सबको अपने संघ में प्रवेश दिया।
-संजय श्रमण

मित्र Anurag Arya की जोरदार लेखनी -

मित्र Anurag Arya की जोरदार लेखनी -
मैं लेफ्ट हैण्ड से बोलिंग करता हूँ राइट हैण्ड से बैटिंग। मूर्ति पूजा में यकीन ना करते हुए भी आस्तिक हूँ , मैं किसी व्रत अंधविश्वास में यकीन ना करते हुए भी ईश्वर में यकीन करता हूँ। मुझे कट्टरता एक जैसी ही लगती है किसी भी मजहब की हो किसी भी सूरत में . मैं कबीर को भी रेलिश करता हूँ मार्क्स को भी विवेकाननद को भी और फ्रायड को भी। मैं गांधी -नेहरू -पटेल को भी नायक मानता हूँ भगत -बोस -आजाद को भी। मैं एक नायक को बड़ा करने के लिए दूसरे को छोटा नहीं करता। मैं असहज नहीं होता जब किसी लेखक को गुड लुकिंग और फैशनेबल देखता हूँ ,मैं तब भी असहज नहीं होता जब किसी फौजी की बेटी "पीस "की बात लिखती है सचिन मेरा फेवरेट रहा है पर इससे द्रविड़ या लक्ष्मण के लिए मेरी रेस्पेक्ट ख़त्म नहीं होती। मैं किसी लेखक का ,फैन हो सकता हूँ पर उसे पूजता नहीं मेरी समझ किसी चीज़ को तर्क से देखती है उसकी कविताओ कहानियो को पसंद करते हुए भी मैं किसी सन्दर्भ में उससे असहमति रख देता हूँ। मैं संदर्भो को देखता हूँ ,व्यक्ति पोलिटिकल फिलॉसफी को नहीं ,मेरी समझ में कोई भी फिलॉसफी कोई भी व्यक्ति कम्प्लीट नहीं है कोई भी परफेक्ट नहीं हो सकता ,होना भी नहीं चाहिए थोड़ा बहुत इम्परफेक्शन सुधार की गुंजाइश बनाये रखता है । अलग अलग समयो में अलग अलग जगह हम सही या गलत होते है मेरी फेवरेट मूवीज़ में "अर्धसत्य " भी है" कभी कभी " भी मुझे "प्यासा" भी पसंद है ,"शोले" भी मुझे few good man भी पसंद है departed भी ,मै NOTEBOOK देखकर भी रोता हूँ ,तारे जमीन पर देखकर भी और मुझे ice age भी पसंद है और FINDING NEMO का मैं मुरीद हूँ। भारत एक खोज का ऋग्वेद का " सृष्टी से पहले सत्य नहीं था,असत्य भी नहीं" मुझे पसंद है और " फायाकुन "भी। मैंने किसी गिटार का कोई मजहब नहीं देखा ,किसी किताब का नहीं ,किसी पहाड़ की कोई जात नहीं देखी किसी नदी की नहीं।
मैं रिमोट से कंट्रोल नहीं होता !
आप मुझे पसंद करे या नहीं मुआफ़ करिये मैं ऐसा ही रहूँगा !


- जून 2018

गाली और ब्लड प्रेशर

बचपन से ही ये दंतकथाये सुनता आया हूँ कि
एकबार किसी ने गौतम बुद्ध को गाली बक दी तो उन्होंने बड़ी विनम्रता से यह उत्तर दिया कि मैं आपकी दी हुई चीज स्वीकार नही कर सकता अतः इसे आप ही रखें।
गाँधी जी के अहिंसा दर्शन के बारे में तो सुप्रचलित है कि यदि कोई आपके गाल पे झापड रसीद कर दे तो आप उसकी ओर दूसरा गाल भी कर दें।
इन दोनों बातों को सिर्फ कहानी की तरह सुना पर कभी पालन न कर सका। छात्र जीवन और उसके बाद के जीवन में ऐसे कई प्रसंग आये कि किसी ने गाली बकी तो उसका मुंहतोड़ जवाब दिया बेहतरीन बुंदेलखंडी गालियों से...
यह भी बताता चलूं कि मुझे बालपन में गाली देने का अधिकार प्राप्त नहीं था। विधिवत रूप से उत्तम कोटि की गालियाँ कक्षा 09 के बाद देनी शुरू कीं थी। आज भी कभीकभार गालियां देता हूँ, पर शुरुआत नहीं करता। ज्यादातर गालियां कार चलाते समय ही उपजती हैं। भारत की सड़कों पर बिना गाली दिए आप वाहन चला ही नहीं सकते। पत्नी का कहना है कि गाली देकर क्यों अपनी जुबान गंदी करते हो और ब्लडप्रेशर बढ़ाते हो?
पर मुझे लगता रहा कि गाली देकर मेरा ग़ुबार निकल जाता है और ब्लड प्रेशर सामान्य हो जाता है।
उसके बाद -
फेसबुक पर आ गया और उसका ये एहसान रहेगा कि गाली और धमकी झेलने का खूब अभ्यास हो गया है। कभी-कभी तो हंसी भी आती है सामने वाले पर। सच में बुद्ध और गाँधी बहुत समझदार थे....

- जून 2018