Monday 24 September 2018

निर्विकार चेतना या अमन (मन का विचार शून्य होना) की अवस्था ही "ध्यान" है। - बुध्द

निर्विकार चेतना या अमन (मन का विचार शून्य होना) की अवस्था ही "ध्यान" है। - बुध्द
वेदांत यह मानता है कि आत्मा, परमात्मा और पुनर्जन्म है। इसलिये वेदांती के मन के लिए ध्यान असंभव है। क्योंकि वहाँ पहले से ही इतना कुछ भरा हुआ है कि अमन की अवस्था या शून्य या निर्वात संभव नहीं है।
अतः ध्यान की अवस्था बुद्ध के यहाँ ही संभव है।
इस विषय पर और प्रकाश डालता हुआ मित्र Sanjay Shramanjothe का पठनीय आलेख प्रस्तुत है। बस जरा धीरे-धीरे पढ़िए और अपने मन को पूर्वाग्रह से मुक्त होकर पढ़िए।
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गौतम बुद्ध के लिए अनत्ता या स्व सहित व्यक्तित्व की हीनता को सरल भाषा में फिर से रख रहा हूँ ... यह अनत्ता बौद्ध धर्म की सबसे गहन और आवश्यक अनुभूति है।
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गौतम बुद्ध मन या व्यक्तित्व या आत्मा को एक स्वतन्त्र इकाई की तरह नही देखते। बुध्द शरीर को भी चार महाभूतों से बना हुआ मानते हैं और मन को भी स्मृतियों, कल्पनाओं, शिक्षा, सामाजिक कन्डीशनिंग आदि से मिलकर बना हुआ मानते हैं। इसी कारण मृत्यु के बाद जैसे शरीर बिखर जाता है वैसे ही मन भी अपने टुकड़ों में बिखरकर खो जाता है।
शरीर और मन के ये ही टुकड़े अन्य सैकड़ों हजारों गर्भ में प्रवेश करते हैं और उस नए जीव के शरीर और मन को बनाते हैं। जैसे एक जीव के मरने पर उसका शरीर मिट्ठी में मिल जाता है और फिर घास पत्तों पेड़ों द्वारा खाया जाता है फिर उसे दुसरे जीव अपने शरीर में ले लेते हैं। ऐसा ही मन के साथ भी होता है। इसका ये अर्थ है कि एक आदमी का मन मरने के बाद सैंकड़ों मनों के निर्माण में ईंट सीमेंट की तरह इस्तेमाल हो जाता है।
इसीलिये अगला जीव या बच्चा पहले मर चुके अनगिनत लोगों के मन से थोड़े थोड़े टुकड़े चुनकर निर्मित होता है। उसका शरीर भी पिछले हजारों लोगों के मृत शरीर के उन अंशों से बनता है जो प्रकृति में मिल गए हैं। आधुनिक जीव विज्ञान या बायोलॉजी में इसे भोजन चक्र या खाद्य श्रृंखला के अर्थ में समझाया गया है।
इस तरह बुध्द का यह कहना है कि जिस शरीर को आप अपना कहते हैं वो अन्य शरीरों के अवशेषों,भोजन, पानी और खनिजों से मिलकर बना है। और जिस मन व्यक्तित्व या स्व को आप आत्मा कहते हैं वह अन्य हजारों लोगों के बिखर चुके मन के टुकड़ों का गठजोड़ है। इसीलिये जो लोग पुनर्जन्म का दावा करते हैं वे ये नही समझा पाते कि हर आदमी को अपने जन्म याद क्यों नही रहते।
ओशो रजनीश जैसे वेदांती बाजीगर कहते हैं कि इसी जन्म की बातें याद नहीं रहतीं तो पूर्वजन्म की कैसे रहेंगी, इसलिए पूर्व जन्म की याद न होने का मतलब यह नहीं कि वह होता नहीं। यहां रजनीश पृकृति की समझ को चुनौती दे रहे हैं, उनकी मानें तो प्रकृति मूर्ख है। अगर शंकराचार्य या रजनीश के अनुसार पुनर्जन्म सच में ही होता तो करोड़ो साल के उद्विकास में प्रकृति कोई रास्ता ढूंढ ही चुकी होती उसे याद दिलाने का।
अब जैसे कोई डाक्टर मरता है, अगले जन्म में फिर से डाक्टर पैदा नहीं होता, अगर पुनर्जन्म है और व्यक्तित्व सहित मन की निरन्तरता सत्य है तो उस डाक्टर को अगले जन्म में दुबारा मेडिकल कालेज क्यों जाना होता है? चलो ये भी मान लिया जाय कि पूरी स्मृति आना कठिन है तो भी रुझान और पसन्द तो वही रहनी चाहिए ना? पुनर्जन्म मानने वाले खुद कहते हैं कि हर जन्म में जाति कुल व्यवसाय रूचि और लिंग बदल सकता है।
अब ये बड़ा मजाक है। प्रकृति इतनी मूर्ख नहीं हो सकती। अस्सी साल जो तैयारी करवाई उसे अगले जन्म में भी जारी रहना चाहिए, यही कॉमन सेन्स है। अगर यह जारी नहीं रहती या कुदरत खुद इसे जारी नहीं रख रही तो इसका मतलब है कि ऐसी कोई निरन्तरता होती ही नहीं है।
वेदांत या रजनीश स्टाइल व्याख्या से इस गुत्थी को सुलझाना असंभव है। ये गुत्थी बुद्ध और कृष्णमूर्ती ही सुलझा सकते हैं। बुद्ध के अनुसार मृत्यु के बाद बिखरकर पुनः अन्य हजारों टुकड़ों को शामिल करके संगठित होने वाले शरीर और मन को तैयार होने में एक ख़ास समय लगता है। यही गर्भ और बचपन का समय है। इस काल में नए संगठित हो रहे मन के हजारों टुकड़े आपस में सामन्जस्य बैठा रहे होते हैं इसलिए उस बच्चे का कोई एक व्यक्तित्व नहीं होता।
बुद्ध के अनुसार चूँकि हर जन्म नये व्यक्ति का जन्म होता है और कोई आत्मा या स्व नही होता इसलिए उसमे निरंतरता हो ही नही सकती इसीलिये करोड़ों करोड़ लोग अपने पिछले जन्म को नही जान सकते क्योंकि वो होता ही नही है। करोड़ों में एक आदमी को कोई याददाश्त बनी रहती है कि फलां साल पहले किसी गाँव में वो फलां जगह था या इसका पिता या उसका बेटा था। बुद्ध के अनुसार ऐसी स्मृति सम्भव है।
बुद्ध समझाते हैं कि किसी किसी गर्भ में किसी अन्य मर चुके आदमी की स्मृतियों का बड़ा टुकड़ा प्रवेश कर जाए तो अगला बच्चा इन स्मृतियों को देखकर बताने लगता है। इसे ही गलती से पुनर्जन्म का सबसे बड़ा सबूत बता दिया जाता है।
ये ऐसा है जैसे किसी मर गए इंसान के पाँव या हाथ काटकर किसी दुसरे में लगा दिए जाएँ। ये हाथ पैर नए शरीर में जिन्दा रहेंगे लेकिन वो नया आदमी पुराने का पुनर्जन्म नही है। क्योंकि हाथ पैरों के आलावा अन्य अंग उसने न जाने कितने दुसरे मर चुके लोगों के शरीर से लिए हैं।
इस अर्थ में न केवल आत्म या स्व बल्कि यह प्रतीयमान व्यक्तित्व भी हजारों अन्य टुकड़ों का जोड़ है, कोई मैं संभव ही नहीं है, यह सिर्फ एक आभास है। चूँकि कोई ठोस मैं नहीं है, सब टुकड़ों के परे एक खाली आकाश या शून्यता है इसीलिये ध्यान संभव है। ध्यान का संबन्ध सिर्फ अनत्ता से ही जुड़ता है। जो धर्म आत्मा परमात्मा में यकीन रखते हैं वे न तो ध्यान की कल्पना कर सकते हैं न उसकी वैज्ञानिक व्याख्या कर सकते हैं।
निर्विचार चेतना या अमन की अवस्था को ध्यान कहा गया है, अर्थात यह ध्यान ऐसे दर्शन से उपजा है जहां मन या स्व के शून्य हो रहने की सबल प्रतीति रही है। और ऐसा सिर्फ बुद्ध के धर्म में हुआ है। वेदांत के लिए न सिर्फ मन सत्य है बल्कि आत्मा और परमात्मा सहित पुनर्जन्म भी सत्य है।
इसीलिये वेदांती मन के लिए ध्यान असंभव है, वहां इतना कुछ भरा हुआ है कि अमन या निर्वात संभव ही नहीं है। इसीलिये वेदांती लोग थोड़ी देर तक एकाग्रता मन्त्र तन्त्र आदि करके भक्ति या लय योग में घुस जाते हैं जो कि महावीर और बुद्ध के लिए असम्यक ध्यान हैं। ये होश का नहीं लीनता और मदहोशी का मार्ग है यह जड़ और काष्ठ समाधि का मार्ग है। इसमें सहज बोध यानी कॉमन सेंस बढ़ता नहीं बल्कि घटता जाता है।
इस वृहत्तर अर्थ में बुद्ध न केवल आत्मा और पुनर्जन्म को ख़ारिज करके सामाजिक और मनोवैज्ञानिक कन्डीशनिंग को भी खत्म कर देते हैं बल्कि वे मन शरीर चेतना और संस्कारों के स्तर पर इकोलॉजी या परस्पर निर्भरता के एक नए विज्ञान को भी जन्म दे देते हैं। अर्थात सभी के शरीर और मन एकदूसरे पर निर्भर हैं इसीलिये सबकी चेतना शरीर और मन आपस में जुड़े हैं। इसीलिये सब प्राणियों में समानता भाईचारा और प्रेम होना चाहिए।
इसी से बुद्ध की लोकमंगल और मंगलमैत्री की धारणा जन्म लेती है। यही कारण है कि इस निष्पत्ति तक आते ही बुद्ध ने हिंदुओं की वर्ण और जाति व्यवस्था को नकार दिया और सबको अपने संघ में प्रवेश दिया।
-संजय श्रमण

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