Monday 24 September 2018

क्रिश्मस का विरोध या मानसिक दीवालियापन?

क्रिश्मस का विरोध या मानसिक दीवालियापन? -----

मनुष्य चाहे तो उसका विस्तार अंतरिक्ष सा हो सकता है। गौतम बुद्ध, विवेकानंद, गाँधी, ......... जैसे उदाहरणों की कोई कमी नहीं है हमारे देश में।
उसी के विलोम में क्षुद्रता की भी कोई सीमा नहीं है। ये पतन इस सीमा तक हो सकता है कि अपने आप में नाभिकीय बिखण्डन का सिद्धांत शरमा जाए। संकुचित व्यक्ति सिर्फ राष्ट्र, धर्म, जाति, कुटुंब, परिवार की सीमा तक ही सीमित नहीं रहता। वह उससे भी नीचे जाकर अंततः नितांत स्वार्थी ही साबित होता है।
जो आज हिन्दू के संगठित होने की चिंता में घुले जा रहे हैं, वे मौका मिलते ही अव्वल दर्ज़े के जातिवादी भी साबित होते हैं और चुनाव के वक़्त अपनी जाति के लफंगे, दुष्ट, लोभी, भ्रस्टाचारी को भी वोट दे आते हैं। ऐसा करते समय न तो उन्हें अपने राष्ट्र की चिंता सताती है न धर्म की....
भारत जैसे विविधतापूर्ण देश को एक रंग में रंगने का स्वप्न ही देशद्रोह है।

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