Wednesday 20 June 2012

विकलांग होता समाज


सत्यमेव जयते के इस शो में आमिर खान ने विकलांगों के प्रति सरकार और समाज की उदासीनता का मुद्दा पूरी गंभीरता से उठाया। हर बार एक नए विषय को ताज़गी के साथ प्रस्तुत करना आमिर की खूबी है। सत्यमेव जयते के पहले शो के बाद जहां एक ओर आमिर की तारीफ के पुल बंधे वहीं दूसरी ओर एक ऐसा छद्म प्रगतिशील या बौद्धिक तबका ऐसा भी था जिसने इस प्रयास को भी अपने रंगीन चश्मे से देखना शुरू किया कि इसके पीछे भी बाज़ारवाद और पूंजीवादी ताकतों का षड़यंत्र पाया। आमिर पर व्यक्तिगत आरोप भी लगाए गए कि वे प्रत्येक शो के लिए तीन करोड़ रुपये मेहनताना लेते हैं। रिलायंस फाउंडेशन एक पूंजीपति की संपत्ति है और पूंजीपति कभी कोई भी अच्छा कार्य नहीं कर सकता। ऐसे लोग यह भूल जाते हैं कि पूर्व में टाटा और बिरला जैसे पूंजीपति घरानों ने अपने स्तर पर स्वेच्छा से कई अस्पताल और शिक्षा के उत्कृष्ट केन्द्र खोलें हैं। टाटा मेमोरियल जैसा अस्पताल इस देश की धरोहर है। अंबानी परिवार पर अब तक सिर्फ व्यापार तक सीमित रहने का आरोप था और वह सही भी था। परंतु रिलायंस फाउंडेशन के माध्यम से अंबानी परिवार परोपकारी कार्यों में योगदान करता दिख रहा है। इसका स्वागत ही होना चाहिए। भले ही इसके पीछे टैक्स बचत संबंधी अन्य कारण हों। सरकार धारा 80 (जी) के तहत परोपकारी कार्यों के लिए खर्च की गयी राशि को करमुक्त करती है। परंतु ऐसे कितने लोग और संस्थायें हैं जो 80(जी) के तहत दान करके कर बचाती है?
    निस्संदेह यह बहुत खतरनाक प्रवृत्ति है कि समाज में घट रही प्रत्येक घटना को शक की निगाह से देखो। किसी पर भरोसा न करो, चाहे वह टीम अन्ना हो, बाबा रामदेव या आमिर खान। खुद तो कुछ करना नहीं है। इसके  विपरीत जो लोग इस व्यवस्था के विरुद्ध अपने- अपने स्तर पर प्रयत्नशील हैं, उन्हें शक की निगाह से देखो और हो सके तो फेसबुक पर आलोचना कर खुद के बुद्धिजीवी होने का प्रमाण दो। सच मायने में यही पूंजीवाद का षड़यंत्र है कि व्यक्ति का व्यक्ति के ऊपर से विश्वास ही उठ जाये ताकि व्यवस्था परिवर्तन का कोई संगठित प्रयास हो ही न सके।
    हमारे आसपास बहुत कुछ तेजी के साथ घटित हो रहा है। अगर पिछले एक साल की बात करें तो अन्ना आंदोलन का चढ़ाव तथा उतार, रामदेव की राजनैतिक सक्रियता, भ्रष्टाचार के कारण सत्ताधारी दल का निरंतर कमजोर होते जाना, बड़े-बड़े राजनीतिज्ञों और नौकरशाहों का हवालात के पीछे जाना, निर्मलबाबा, पॉल दीनाकरन और राधे माँ जैसे पाखंडियों का साम्राज्य फैलना और उनकी पोल खुलना, मीडिया विशेषकर इलैक्ट्रॉनिक मीडिया का दोगला चरित्र, फेसबुकिया संस्कृति का जाल फैलना, आई.पी.एल. जैसे तमाशे, प्राकृतिक साधनों का निरंतर कम होते जाना, तमाम व्यवस्थागत बाधाओं के बावजूद अग्नि 5 जैसी उपलब्धियां हासिल होना, मंदिरों/मठों और आश्रमों का निरंतर धनवान होते जाना तथा कालेधन का संग्रहण आदि कुछ ऐसी घटनायें हैं जिन्हें भारतीय नागरिक प्रायः रोज ही घटते देख रहा है और किंकर्तव्यविमूढ़ है। उसे समझ नहीं आ रहा है कि इस समाज में उसकी क्या भूमिका है? आमआदमी के पास इन तेजी से बदलते घटनाचक्र के मूक गवाह बनकर रहने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचा है। भारतीय जनमानस अपने खाली समय में या तो टी.वी. देखता है, या निरर्थक गप्प लगाता है। उसके सोचने-समझने की क्षमता निरंतर घटती जा रही है। और हमारा समाज धीरे-धीरे सही मायने में विकलांग होता जा रहा है।