Saturday 11 June 2011

"लेडीज़ फर्स्ट"


कार्यक्रम भले ही मुख्य अतिथि के आगमन के इंतजार में प्रातःकालीन सत्र से अपराह्न सत्र में तब्दील हो जाए पर जब तक दोपहर भोज की विधिवत रूप से घोषणा नहीं हो जाती, इसे प्रातःकालीन सत्र ही समझा जाता है। ऐसा प्रायः होता है कि मुख्य अतिथि देर से ही आते हैं अन्यथा यह समझा जाएगा कि उनके पास कोई और काम नहीं है। वर्तमान समय में हिंदी कविता पर क्या संकट हैं, संकट है या नहीं,  है तो कितना है, कविता पर संकट है या कवि पर संकट है, इत्यादि विषयों पर विचार मंथन बनाम माथापच्ची के लिए हमारे नगर में साहित्यकारों और कवियों का जमावड़ा हुआ। हालाकि मैं अपने को श्रोता मानकर इस सम्मेलन में पहुँचा था पर वहां प्रस्तुत कुछ गद्यनुमा कविताओं को सुनकर लगा कि मैं भी कवि बन सकता हूँ। आखिर जिस तरह मैं अपनी पत्नी को खाने में नमक कम या ज्यादा हो जाने पर, खाना कम या ज्यादा बन जाने पर,  जल्दी या देर से बनने पर जिन शब्दों एवं वाक्यों में झिड़कता रहता हूँ, उसे भी मुक्त छंद कविता कहा जा सकता है।

            काव्यपाठ सत्र की समाप्ति के बाद कविता पर चर्चा और समीक्षा का दौर शुरू हुआ ही था कि एक नीली गंदी जीन्स पर बिना प्रेस किया हुआ खादी का कुर्ता यानि वामपंथी गणवेश पहने एक कवि ने बिंदी से लेकर पैर की नेलपॉलिश तक लगभग एक ही रंग में मेकअप करके पधारीं एक उदीयमान कवयित्री की कविता पर व्यंग्य मारते हुए कहा कि यदि यही कविता है तो अखबार में छपे समाचार भी मुक्तछंद की रचना कहे जा सकते हैं और गोदान तो प्रेमचंद का सबसे महत्त्वपूर्ण महाकाव्य माना जाएगा।

            तिलमिला गईं कवयित्री जी ने उपहास उड़ता देख तुरंत "स्त्री विमर्श" नामक ब्रह्मस्त्र  का प्रयोग किया और कहा "छद्म प्रगतिशील ही ऐसा कह सकता है। दरअसल स्त्रियों को आगे बढ़ता हुआ देखना पुरुषों को कब भाया है? तभी तो आजतक कोई भी बढ़ा साहत्यिक सम्मान स्त्री को नहीं मिला है। और यदि मिल भी जाये तो लोग कहते हैं कि यह किसी पुरुष की विशेष कृपा या अनुराग का परिणाम है।"
           
            कार्यक्रम आयोजक ने माहौल को गर्म होते देख बीचबचाव करते हुए कहा - "यह सत्र निजी टीका - टिप्पणी के लिए नहीं है। हम कवि को स्त्री और पुरुष में नहीं बांटते।  यहाँ कवियों को आमंत्रण उनकी कविता के आधार पर दिया गया है न कि महिला - पुरुष के नाम पर। अगर हम पुरस्कार देते समय यह देखने लग गए कि अमुक स्त्री है या पुरुष, अगड़ा है या पिछड़ा,  सवर्ण है या दलित, सरयुपारीन है या कान्यकुब्ज तो हो चुका साहित्य सम्मेलन।"

            मामला जैसे - तैसे शांत ही हुआ था कि बगल के कमरे से भोजन के तैयार हो जाने का संकेत प्राप्त हो गया। पर मुख्य अतिथि का उबाऊ भाषण अभी शुरू ही हुआ था। सभी उपस्थित प्रतिभागी चाहकर भी वहाँ से उठ नहीं पा रहे थे। एक तो वैसे ही कार्यक्रम देर से शुरू हुआ था,  ऊपर से भोजन की सुगंध से बढ़ती हुई भूख। मुख्य अतिथि बड़े साहित्यकार थे अतः उनके भाषण का लंबा होना तय था। लेकिन यह भी स्थापित तथ्य है कि पकी उम्र के होने के कारण उनकी भोजन में रुचि श्रोताओं की तुलना में कम ही थी। कुछ देर तक तो उनके पांडित्य को बर्दाश्त किया गया पर जब ऐसा लगने लगा कि भोजन ठंडा हो रहा है तो कवियों में बेचैनी फैल गई। कोई अपनी कलाई पर लगी घड़ी देख कर इशारा कर रहा था तो कोई अपना थैला बंद कर रहा था। कुछ लोग उन्हें मन ही मन बूढ़ा, खूसट इत्यादि विशेषणों से नवाजने भी लग गए थे। मुख्य अतिथि को चुप होते न देख सब ने मिलकर ताली बजा दी। आखिर मेहनत रंग लाई तथा भाषण समाप्त हुआ।

            जल्दी से धन्यवाद प्रस्ताव देकर सभी कवि भोजन कक्ष में प्रवेश कर गये। उदीयमान कवयित्री भी पीछे नहीं थीं। खाने के लिए प्लेट उठाते समय आयोजक महोदय ने उनकी ओर प्लेट बढ़ाते हुये कहा - "लेडीज़ फर्स्ट" । मैडम ने खींसे निपोरते हुए प्लेट थाम ली। साहित्यिक सम्मान न सही,  खाने की पहली प्लेट पर तो स्त्री का हक़ पुनः स्थापित हुआ।

Saturday 4 June 2011

वर्तमान ग़ज़ल में पर्यावरण असंतुलन की अभिव्यक्ति



ग़ज़ल, वर्तमान समय की अत्यंत लोकप्रिय विधा एवं भावाभिव्यक्ति का सशक्त माध्यम है। हिंदी भाषा में भी ग़ज़ल की सुदीर्घ परंपरा रही है। स्वातंत्र्योत्तर काल में आधुनिक हिंदी ग़ज़ल की भावभूमि में व्यापक परिवर्तन हुये हैं। आधुनिक काल में ग़ज़ल से तात्पर्य केवल रूमानियत, शराब, प्रेमी-प्रेमिका के आख्यान आदि कदापि नहीं है। आज की ग़ज़ल आज के मुद्दों को उठा रही है, ठीक उसी तरह जैसे साहित्य की अन्य विधाओं में होता है। आज का रचनाकार ज्वलंत सामाजिक मुद्दों पर पैनी नज़र रखता है।
     
        आज के परिवेश में उपजे कुछ ऐसे पहलुओं सवालों की अभिव्यक्ति वर्तमान ग़ज़ल में व्यापक रूप से मिलती है जो इससे पूर्व कभी अभिव्यक्त नहीं हुए। दरअसल ऐसे मुद्दे सिर्फ आज की सामाजिक राजनैतिक परिस्थितियों के कारण ही उत्पन्न हुये है जैसे - पर्यावरण पतन, भूमंडलीय तापन या ग्लोबल वार्मिंग, औद्योगीकरण का संकट, बिखरते परिवार मानवमूल्य, भूमंडलीयकरण, कृत्रिमतापूर्ण जीवन शैली, उपभोक्तावाद आदि।

        हिंदी ग़ज़ल को सामाजिक सरोकारों से जोड़ने का क्रांतिकारी कार्य का सूत्रपात संभवतः दुष्यंत कुमार ने ही किया। दुष्यंत कुमार के बाद तो जैसे हिंदी ग़ज़ल को एक नई दिशा एवं ऊर्जा मिल गयी। उनके परवर्ती काल में कई ग़ज़लकारों ने उन्हीं के स्वर में ग़ज़ल कहना शुरू किया। दुष्यंत के बाद हिंदी ग़ज़ल परंपरा में शंभुनाथ सिंह, नरेन्द्र वशिष्ठ, भवानी शंकर, चंद्रसेन विराट, शेरजंग गर्ग, कुंअर बेचैन, नित्यानंद तुषार, ज़हीर कुरैशी, डॉ. सूर्यभानु गुप्त, गिरिराजशरण अग्रवाल, राजेश रेड्डी, विज्ञान व्रत, तुफैल चतुर्वेदी, डॉ. उर्मिलेश जैसे ग़ज़लकारों के अलावा बशीर बद्र और निदा फाज़ली जैसे उर्दू लहज़े के शायरों का नाम लिया जा सकता है। तात्पर्य यह है कि शायद ही कोई ऐसा ग़ज़लकार हो जो अपनी ग़ज़ल में सामाजिक सरोकारों को अभिव्यक्त नहीं करता हो।
     
      चूंकि पर्यावरण प्रदूषण एवं पतन की विकराल समस्या अभी कुछ ही दशक पुरानी है अतः यह कहना गलत नहीं होगा कि सिर्फ वर्तमान ग़ज़ल में ही पर्यावरण प्रदूषण, पारिस्थतिकी असंतुलन पतन आदि की अभिव्यक्ति हुई है, कुछ दशक पूर्व की ग़ज़लों में नहीं। पर्यावरण प्रदूषण के अंतर्गत जल प्रदूषण, ध्वनि प्रदूषण, वायु प्रदूषण, मृदा प्रदूषण, पारिस्थितिकी असंतुलन, ग्लोबल वार्मिंग इत्यादि आते हैं। वर्तमान ग़ज़लकार ने विस्तार से लगभग इन सभी पहलुओं को छुआ है। जल प्रदूषण की विभीषिका को रेखांकित करते हुए कुछ शे दृष्टव्य हैं -  

किस तरह प्यासा नदी के पास जाये बोलिए,
जब वहाँ पर हो रहा है ज़हर घोली का समां

- उपेन्द्र प्रसाद सिंह
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नदी जिसका पानी था अमृत के जैसा, जाने वो विष कौन सा पी रही है।
हरेक सिम्त हैं नागफनियों के मंजर, ये कैसा चमन है, ये कैसी सदी है।

- मिथलेश गहमरी
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पीना होगा और गरल, जीना इतना नहीं सरल,
कीचड़ हाथों में भर आता, कहाँ गया वह गंगाजल।
- नवीन निकुंज
    
     वायु प्रदूषण की समस्या मनुष्य के स्वास्थ्य पर निरंतर विपरीत प्रभाव डाल रही है, अब यह तथ्य नया नहीं रह गया है। वर्तमान ग़ज़लकार ने इस समस्या को कुछ इस तरह अभिव्यक्त किया है -

साथ समय के सदा चलो, हर एक तरफ इशारे हैं,
ज़हर हवा में फैल रहा, पेड़-पेड़ पर आरे हैं।
- अशोक गीते

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भागदौड़ की एक कहानी चलती है दिनभर
तारकोल की सड़क धूप में जलती है दिनभर
हवा शहर की इसीलिए बीमार हो रही है
मिल की चिमनी काला ज़हर उगलती है दिनभर
- ज़हीर कुरेशी

      पर्यावरणविद एवं विचारक श्री विनोद चंद्र पांडेय के अनुसार - पर्यावरण मानव जीवन का अभिन्न अंग है। मानव पर्यावरण का एक प्रमुख घटक है। मानव के चारों ओर उसे आवृत्त करता हुआ भौतिक जगत का जो परि आवरण है, वही पर्यावरण है। मानव के साथ - साथ विविध प्रकार की वनस्पतियाँ, जीव-जंतु तथा प्राकृतिक संपदा इसमें सम्मिलित है।
      उपर्युक्त परिभाषा पर विचार करें तो यह तथ्य उभर कर सामने आता है कि पर्यावरण की बात करते समय हमें समग्रता के साथ समूचे पारिस्थितिकी तंत्र की चर्चा करनी होगी। वर्तमान ग़ज़ल में पर्यावरण प्रदूषण के समस्त प्रचलित भागों या विषयों पर लिखा गया है। ध्वनि प्रदूषण एवं मृदा प्रदूषण पर केंद्रित कुछ शे निम्नवत् हैं -


आदमी बहरा हुआ है शोर से, महफिलों को खा गईं तनहाईयाँ
हैं मशीनी सभ्यता के वन खड़े, अब कहीं गाती नहीं अमराइयाँ
- परमानंद अश्रुज

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इन हवाओं में ज़हर है दूर चलिए
ये तो बहरों का शहर है दूर चलिए
शोरगुल के जंगलों में खो गए हम
चिलचिलाती दोपहर है दूर चलिए
- संजीवन मयंक

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इस रूमाल को काम में लाओ अपनी आँखें साफ करो
मैला - मैला चाँद नहीं है, धूल जमीं है आँखों में।
   - बशीर बद्र

      परंपरागत रूप से पर्यावरण प्रदूषण से तात्पर्य जल, ध्वनि एवं वायु प्रदूषण से है। कालांतर में मृदा प्रदूषण भी इस वर्गीकरण में शामिल हुआ। लेकिन प्राकृतिक संसाधनों के अविवेकपूर्ण दोहन के फलस्वरूप हुए पर्यावरण के निरंतर असंतुलन ने विगत कुछ दशकों में इस वर्गीकरण में अम्ल वर्षा, ग्लोबल वार्मिंग या भूमंडलीय तापन, ओजोन परत क्षरण आदि नए विषय भी शामिल हो गए हैं। इन अद्यतन शामिल विषयों या विभीषिकाओं ने तो मानवमात्र के अस्तित्व पर ही प्रश्नचिन्ह लगा दिया है। वर्तमान समय में विश्वभर के वैज्ञानिक एवं विद्वान आपस में मिलजुलकर इस जीवनदायिनी धरती को बचाने के लिए विचार मंथन कर रहे हैं। अम्ल वर्षा, ग्लोबल वार्मिंग या भूमंडलीय तापन, ओजोन परत क्षरण जैसे आधुनिकतम विषय भी वर्तमान ग़ज़लकार की दृष्टि से ओझल नहीं हुए हैं। इन विषयों की अभिव्यक्ति ग़ज़लकारों के अद्यतन होने तथा इस विषय की गंभीरता को स्पष्ट करती है -  

थरथरा रही है जमीं, आसमां है चुप,
इक डर छिपा हुआ है निगाहों में देखिए।
बारिश में भीगने का मौसम नहीं रहा,
तेजाब भर गया है घटाओं में देखिए।
- हरि मौर्य


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ओस अब तेजाब की बूदों में ढलकर गिर रही,
फूल से चेहरे हमारे अब कहाँ जाकर खिलें।
- डॉ. उर्मिलेश


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कोई पेड़ खिले तो कैसे, फुनगी ही मर जाती है।
धुँआ उगलता ज़हर तब था, मौसम बड़ा नशीला था।
चली आरियाँ, बाग-बगीचे, खेत बनाया नाती ने
बाबा ने तो अपने हाथों, रोपा पेड़ रसीला था।
- जवाहर इंदू

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मत घोलिये आब हवा में रात दिन काला ज़हर
कि साँस भी लेना हो मुश्किल आदमी को साँस भर।
जख्मी हुई जिस रोज़ से ओजोन की मोटी परत
महसूस होती चाँदनी, हो जून की ज्यों दोपहर।
भूकंप-सूखा-बाढ़-रोगों की नई पैदाइशें
हर दिन बढ़ी आती है जानिब गाँव हो या हो शहर।
बनाते रहे मरुस्थल हरे जंगल मुसल्सल काटकर
सोचो जरा होगा हमारा हश्र क्या कुछ है खबर।
रोकी नहीं जो ग़र अभी बढ़ती मशीनीं सभ्यता
इक दिन यकीनन ढ़ाएगी सब पर कयामत का कहर।
बारूद पर बैठा हुआ इंसान जो सभ्हला तूं
हर तरफ शमशान होंगे या कि कब्रिस्तान भर।
- सत्य नारायण शर्मा

      वर्तमान ग़ज़लकार इस प्राकृतिक व्यवस्था के असंतुलन से इतना आहत है कि कहीं-कहीं उनकी ग़ज़लों में निराशावाद की अभिव्यक्ति भी हुयी है

हर नजर में एक झुलसा गुलमोहर है,
ये हमारे गाँव की ताज़ा खबर है।
- शिव ओम अंबर

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कितनों ही के सिर से साया जाता है
जब एक पीपल काट गिराया जाता है।
- ज़फ़र गोरखपुरी

      प्राकृतिक संसाधनों के अंधाधुध दोहन से आहत होकर आधुनिक ग़ज़लकार ने सिर्फ निराशावाद में लिपटी ग़ज़लें ही नहीं कही हैं वरन इतना सब कुछ घटने के बाद भी वे भविष्य को लेकर आशावादी हैं। मानव का सहज प्रकृति प्रेम अनुशासन पूर्ण रवैया ही वह सूत्र है जिसके द्वारा बेहतर भविष्य की कल्पना की जा सकती है। ग़ज़लों में आशावाद को दर्शाते कुछ शे -

गुजरो जो बाग से तो दुआ मांगते चले
जिसमें खिले हैं फूल वो डाली हरी रहे।
- निदा फाज़ली
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फूल खिल सकते नहीं तो ज़ख्म ही दिल में खिलें
जैसे भी महके ये धरती, इसको महकाना तो है।
- कैफी आज़मी


      आज आवश्यकता है उस मानव समाज के निर्माण की, जो प्रकृति के साथ शांतिपूर्ण सह अस्तित्व के सिद्धांत को बनाए रख सके। अथर्ववेद के पृथ्वी सूक्त में कहा गया वाक्य आज के मनुष्य के लिए आदर्श हो सकता है - "हे धरती माँ! जो कुछ तुझसे लूंगा, वह उतना ही होगा जिसे तू पुनः पैदा कर सके। तेरे मर्मस्थल पर, तेरी जीवन शक्ति पर कभी आघात नहीं करूंगा।"

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                                    - डॉ. परितोष मालवीय
                        39/3 डिफेंस कॉलोनी, ग्वालियर
9425735202


संदर्भ -
1.     अंक 19, पृथ्वी और पर्यावरण, विनोद चंद्र पांडेय,
2.    ग़ज़ल दुश्यंत के बाद, सं. दीक्षित दनकौरी
3.    हिंदी ग़ज़ल का वर्तमान दशक, सं. सरदार मुजावर
4.    हिन्दी ग़ज़ल शतक, सं. शेरजंग गर्ग
5.    हिन्दुस्तानी ग़ज़लें, सं. कमलेश्वर
6.    ग़ज़ल विश्वांक, आरंभ - 02, सं. प्रदीप चौबे