Wednesday 27 July 2011

लोककवि "घाघ"


हिंदी साहित्य को समृद्ध करने में लोक कवियों का विशेष योगदान रहा है। लगभग प्रत्येक कालखंड में लोक कवियों ने अपनी लेखनी एवं बोली से तत्कालिक जन संस्कृति व जीवन शैली को अभिव्यक्त किया है। किसी अंचल विशेष की लोकसंस्कृति, जनमानस के कार्यकलाप, उनकी मान्यताओं और कुरीतियों के साथ चारित्रिक गुणों इत्यादि का बखान लोक कवियों के कृतित्व में दृष्टिगोचर होता है। यदि आंचलिकता व तत्कालीन जीवनशैली के वर्णन को लोककाव्य की एक महत्त्वपूर्ण विशेषता माना जाये तो ज्यादातर भक्तिकालीन कवि लोककवियों की ही श्रेणी में खड़े नजर आते हैं।

      प्रायः यह पाया गया है कि लोककवियों के स्वभाव में फक्कड़पन होने के कारण उनका काव्य श्रुति परंपरा या बोलचाल तक ही सीमित रहा है। उनका संपूर्ण काव्य लिपिबद्ध न हो पाने के कारण समय के साथ-साथ विस्मृत एवं विलुप्त होता जाता है। प्रायः मुहावरों के रूप में प्रयोग होने वाले उनके मुक्तक पीढ़ी दर पीढ़ी घटते जा रहे हैं। हालत यहाँ तक आ पहुँची है कि वर्तमान पीढ़ी उनकी रचनाओं से तो क्या, उनके नाम से भी परिचित नहीं है।

       विस्मृत होते जा रहे ऐसे ही एक लोककवि "घाघ" हैं जिनकी रचनायें आम जनमानस से उनकी नजदीकी स्वतः ही बयान करती हैं। 'घाघ' प्रायः लोकोक्तियों या कहावतों के रूप में ठेठ हिंदीभाषी क्षेत्र में, विशेषकर ग्रामीण क्षेत्रों में, प्रचलित हैं। कुछ उदाहरण –

नस कट पनही, बतकट जोय।
जो पहलौठी बिटिया होय।।
पातरि कृषि, बौरहा भाय।
घाघ कहैं दुःख कहा समाय।।

(नस काटते हुए जूते, बात काटने वाली पत्नी, पहले पैदा होने वाली लड़की, पाला मारी हुई खेती,
और मंदबुद्धि भाई होने से दुःख अंतहीन हो जाते हैं।)
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ताका भैंसा गादर बैल, नारि कुलच्छनि बालक छैल।
इनसे बाँचे चातुर लोग, राज छोड़ के साधै जोग ।।

(टेढ़ी नजरों या दो तरह की नजरों वाला भैसा, हल जोतते समय बार - बार बैठ जाने वाला बैल , बुरे लक्षणों वाली महिला एवं उचक्के लड़के से समझदार लोगों को बचना चाहिए, इनकी संगत को छोड़ने के लिए भले ही राजसुख छोड़ कर जोगी बनना पड़े।)

      "घाघ" के जन्मस्थान और समय के बारे में प्रमाणिक जानकारी का अभाव हैं। परंतु हिंदी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग द्वारा पं. रामनरेश त्रिपाठी के संपादकत्व में कई वर्षों पूर्व द्वारा प्रकाशित ग्रंथ "कविता कौमुदी" के हिंदी काव्य खंड में तथा हिंदुस्तानी ऐकेडमी, प्रयाग द्वारा प्रकाशित "घाघ और भड्डरी" नामक पुस्तक में "घाघ" का जिक्र है, जिसमें उनका जन्म सन् 1753 में कन्नौज के पास चौधरीसराय नामक गाँव में हुआ बताया गया है, यद्यपि उन्हें फतेहपुर जिले एवं छपरा का भी निवासी बताया जाता है। इसके अलावा उन्हें ग्वालियर, मध्यप्रदेश से भी संबंधित बताया जाता है। ग्वालियर अंचल में 'घाघ' तथा 'जगनिक' लोककवि के रूप में जाने जाते हैं। यद्यपि 'घाघ' की प्रचलित रचनाओं में कतिपय शब्द ऐसे मिलते हैं जो ग्वालियर अंचल में प्रचलित न होकर पूर्वी उत्तर प्रदेश तथा बिहार में प्रचलित हैं, जैसे - भकुवा, पासी, मेहरारू इत्यादि। कुछ उदाहरण दृष्टव्य हैं -

घर घोड़ पैदल चले, तीर चलावे बीनि ।
थाथी धरे दमादे घर, जग में भकुआ तीनि ।।

(घर में घोड़ा होने पर भी पैदल चलने वाले, बीन - बीन कर तीर चलाने वाले और दामाद के
पास संपत्ति रखने वाले ये तीनों लोग इस संसार में बेवकूफ होते हैं।)

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बिन बैलन खेती करें, बिन भैयन को रार ।
बिन मेहरारू घर करैं, चौदह साख लबार ।।

(बिना बैल के खेती करने, बिना भाइयों के दुश्मनी करने, और बिना पत्नी के घर
बसाने की बात करने वाला चौदह पीढ़ियों का झूठा होता है।)

   "घाघ" का कोई प्रामाणिक काव्य संग्रह उपलब्ध नहीं है। वे श्रुति परंपरा द्वारा ही कहावतों में अपना नाम अमर किये हुये हैं। उनकी कहावतें पूर्वी उत्तर प्रदेश, अवध व चंबल के इलाकों में प्रचलित रही हैं। "घाघ" ने चुटीले व्यंग्यों के अलावा नीति विषयक, प्रकृति या मौसम विषयक बातें कहावती शैली में कही हैं। उनकी कविताओं की लोकप्रियता का एक कारण यह भी रहा है कि उन्होंने सामान्य जनमानस के लिए काव्य रचना की है -
बैल चौंकना जोत में, औ चमकीली नार।
ये बैरी हैं जान के, कुसल करैं करतार।।

(खेती करते समय चौंकने वाला बैल और हर समय सजधज और मटक कर
रहने वाली औरत जान के दुश्मन होते हैं, प्रभु इनसे रक्षा करे।)

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उत्तम खेती मध्यम बान।
निकृष्ट चाकरी, भीख निदान।।
खेती करै बनिज को धावै।
ऐसा डूबै थाह न पावै।।

(जीवनयापन में कृषिकार्य उत्तम श्रेणी का, बनिए का कार्य मध्यम श्रेणी का और नौकरी निकृष्ट श्रेणी
की और भीख सबसे निम्न श्रेणी की होती है। जो व्यक्ति खेती के लिए साहूकार के पास जाता है, उसका डूबना तय है।)   

   "घाघ" की कविताओं के विषय आसपास के ग्रामीण परिवेश व जीवन से लिये गये हैं। उनकी कविताओं में तत्कालीन सामाजिक आर्थिक व्यवस्था दृष्टिगोचर होती है। उनके कुछ व्यंग्य प्रधान छंद दृष्टव्य हैं -

बनिय क सरखज ठकुर क हीन।
बयद क पूत व्याधि नहिं चीन।।
पंडित चुपचुप बेसवा मइल।
  कहैं घाघ पाँचों घर गइल।।

(यदि बनिया का पुत्र शाहखर्च हो, ठाकुर का पुत्र दमदार न हो, वैद्य का पुत्र बीमारी न पहचाने, पंडित चुप रहने वाला हो और वेश्या मैली कुचैली हो, तो इन सबका पराभव होता हैं।)


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उधारि काढ़ि व्यौहार चलावैं, छप्पर डालें तारो ।
सारे के संग बहिनी पठवें, तीनिन का मुँह कारो ।।

(उधार लेकर व्यवहार करने वाले, टूटे छप्पर पर ताला डालने वाले और साले के साथ अपनी
बहिन को भेजने वाले का मुँह अंततः काला ही होता है।)

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आलस नींद किसानै नासै, चोरै नासै खाँसी ।
अंखिया लीबर बेसवै नासै, बाबै नासै दासी ।।

(आलस्य और नींद किसान का , खाँसी चोर का , कीचड़ भरी आँखें
वेश्या का और दासी साधू के नाश का कारण बनती है।)

      "घाघ" ने ठेठ ग्रामीण बोलचाल भाषा में अपनी बात कही। संभवतः इसी कारण वे लोक परंपरा के अंग बन सके। वे तीखे व्यंग्यों के अलावा अत्यंत साधारण तरीके से नीति विषयक बातें कह गये हैं। उनकी ज्यादातर कवितायें ग्रामीण व किसान जीवन को गहराई से अभिव्यक्त करती हैं। नीति विषयक बातें कहने के लिये भी उन्होंने आम ग्रामीण जीवन से ही प्रतीक और बिंब लिये हैं -

नसकट खटिया दुलकन घोर।
कहे घाघ यह विपत की ओर।।
बाछा बैल पतुरिया जोय।
न घर रहे न खेती होय।।

(लंबाई में छोटी खाट जिसकी पाटी पर एड़ी की नस दबती हो, और दुलक कर चलने वाला घोड़ा, विपत्ति की ओर इशारा करते हैं, बैल की जगह बछड़ा होना और गृहस्थी के अनुभव से रहित नई दुल्हन, खेती और घर के योग्य नहीं होते हैं।)

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सुथना पहिरे हर जोतै, औ पौला पहिरि निरावैं।
घाघ कहैं ये तीनों भकुवा, सिर बोझा और गावैं।।

(पायजामा पहन कर हल जोतने वाले, और खड़ाऊँ पहनकर निराई करने वाले और सिर पर बोझा
होने पर भी गाना गाने वाले, ये तीनों बेवकूफ होते हैं।)

      उनके काव्य में जहाँ एक ओर सामाजिक व्यवस्था का यथार्थ चित्रण दिखायी देता है वहीं दूसरी ओर ऐसा लगता है कि वे जनता को नीतिगत संदेश देना चाह रहे हैं -

ना अति बरखा, ना अति धूप।
ना अति बकतर, ना अति चूप।।

( न अधिक बरसात होनी चाहिए न अधिक धूप, इसी तरह
न अधिक बोलना चाहिए न अधिक चुप रहना चाहिए!)

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लरिका ठाकुर, बूढ़ दीवान।
ममिला बिगरै,साँझ विहान।।

(नौजवान ठाकुर और बुजुर्ग दीवान के होने पर सुबह-शाम मामला बिगड़ता ही रहता है!)


बाध, बिया, बेकहल, बनिक, बारी, बेटा, बैल।
ब्योहर बढ़ई, बन, बबुर, बात सुनो यह छैल।।
जो बकार बारह बसैं, सो पूरन गिरहस्त।
औरन को सुख दे सदा, आप रहै अलमस्त।।

(बाध (जिससे खाट बुनी जाती है), बीज, बेकहल (ढाक की जड़ की छाल), बनिया, फुलबारी, बेटा, बैल,  उधार पर धन देना, बढ़ई, कपास, बबूल और बात; ये बारहों चीजें जिसके पास हों, वह पूर्ण ग्रहस्थ होता है, ऐसा व्यक्ति खुद तो मस्त रहता ही है, दूसरों को भी सुख प्रदान करता है।

      "घाघ" की रचनाओं से ऐसा प्रतीत होता है कि वे पेशे से किसान थे। उनकी रचनाओं में कृषिकर्म या किसान के सरोकारों का विस्तार से वर्णन मिलता है। कहीं - कहीं तो ऐसा लगता है कि वे किसानों को शिक्षित करने का भी प्रयास कर रहे हैं -

गया पेड़ जब बकुला बैठा।
गया गेह जब मुड़िया पैठा।।
गया राज जहँ राजा लोभी।
गया खेत जहँ जामी गोभी।।

(जिस पेड़ पर बगुला बैठने लगे वह पेड़ नष्ट हो जाता है, वह घर नष्ट हो जाता है जहाँ साधू-संन्यासियों का आना-जाना हो, ऐसा राज्य नष्ट हो जाता है जहाँ का राजा लोभी हो, ऐसा खेत नष्ट हो जाता है जहाँ गोभी
(एक प्रकार की घास) होती हो।)
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माघ क ऊखम, जेठ का जाड़।
पहिले बरिखे भरिगै ताल।।
कहैं घाघ हम होहिं बियोगी।
कुँआ खोदि के धोइ हैं धोबी।।

(जब माघ महीने में गर्मी पड़े, जेठ महीने में जाड़ा पड़े, पहली ही बरसात में तालाब भर जाये, घाघ कहते
है कि तब ऐसा सूखा पड़ेगा कि पलायन करना पड़ेगा और धोबी को कुंये के पानी से कपड़े धोना पड़ेगा।)

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नीचे ओद ऊपर बदिराई, कहे घाघ अब गेरुई धाई।
पछिवा हवा ओसावै जोई, घाघ कहैं घुन कबहुँ न होई।।

( खेत में ओस या नमी हो ऊपर बादल छाये हुए हो तो मक्के की फसल में लाल रोग लग जाता है,
पछुवा पवन बहते समय फसल की ओसाई करने या फटकने पर उसमें कभी घुन नहीं लगता।)

      समाज में व्याप्त खामियाँ "घाघ" की नजर से बच नहीं पायीं। उनकी रचनाओं में सामाजिक यथार्थ के साथ-साथ व्यंग्य का अद्भुत संगम है -

बूढ़ा बैल बिसाहे, झीना कपड़ा लेय ।
अपुन करै नसौनी, दैवे दूषण देय ।।

(बूढ़ा बैल खरीदने और झीना कपड़ा लेने पर व्यक्ति अपना नुक्सान स्वयं करता है
तथा देवताओं को व्यर्थ ही दोष देता हैं।)


      किसान की सबसे बड़ी अभिलाषा होती है कि मानसून की बारिश अच्छी हो, ताकि कृषि उपज व उनकी स्थिति बेहतर हो सके । 'घाघ' ने सर्वाधिक रचनायें बारिश या मानसूनी वर्षा को लेकर ही की हैं -

दिन में बद्दर, रात निबद्दर, चले पुरवाई छब्बर-छब्बर।
घाघ कहैं कुछ होनी होई, कुँए का पानी धोबी धोई।।

(दिन में बादल छाए हों तथा रात में बादल छट जायें और धीरे-धीरे पूरवा हवा चल रही हो, घाघ कहते हैं कि ऐसी स्थिति में कुछ खराब ही घटित होगा (मानसून के संबंध में) और धोबी को कुंए के पानी से कपड़े धोने पड़ सकते हैं।) 

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पहिले पानि नदी उफनायँ।
तौ जानियो कि बरखा नायँ।।

(पहली बरसात से यदि नदी में बाढ़ आ जाए जो समझ लेना चाहिए कि बारिश कम होगी)

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माघ में गरमी जेठ में जाड़।
कहैं घाघ हम होब उजाड़।।

(माघ महीने में गर्मी और जेठ के महीने में जाड़ा पड़े तो समझ लेना चाहिए कि पानी के
कम बरसने से सब उजाड़ हो जाऐंगे।।)

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साँझे धनुक सकारे मोरा।
यह दोनों पानी के बौरा।।

(यदि शाम को इंद्रधनुष और सुबह मोर बोले तो
समझा लो कि बरसात हो सकती है।)

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रात निबद्दर दिन को घटा।
घाघ कहैं ये बरखा हटा।।

(रात को बादल न हों और दिन में काली घटाऐं हों तो समझ लेना
चाहिए कि मानसून काल समाप्त होगया है।)

      'घाघ' ने कतिपय कहावतें स्वास्थ्य को दृष्टिगत करते हुये भी कहीं हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि स्वास्थ्य को लेकर कहीं गयी उनकी बातें व्यक्तिगत अनुभव पर आधारित थीं, परंतु इसकी अभिव्यक्ति भी ठेठ रोचक तरीके से की गई है। वर्ष के हर महीने में कौन से खाद्य साम्रगी का सेवन वर्जित व स्वास्थ्य के प्रति हानिकारक है, इसका विवरण घाघ ने कुछ यों दिया है -

चैते गुड़ वैशाखे तेल, जेठ क पंथ असाढ़ क बेल।
सावन साग न भादों दही, क्वार करेला कातिक मही।।
अगहन जीरा, पूसे धना, माघै मिश्री, फागुन चना।।

(चैत्र माह में गुड़, वैशाख में तेल, जेठ में राह, आसाढ़ में बेल, सावन में हरी साग,
भादों में दही, क्वार में करेला, कार्तिक में मट्ठा, अगहन में जीरा, पूस में धना,
 माघ में मिश्री व फागुन में चने का सेवन नहीं करना चाहिए।)
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 जिसको मारन चाहिये, बिन लाठी बिन घाव।
                              ताको दीजो यही सलाह, घुइयां - पूड़ी खाओ।।

(जिसको बिना लाठी और चोट के मारना हो तो उसे घुइयां और पूड़ी खाने की सलाह देनी चाहिए।)

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सावन घोड़ी भादों गाय, माघ मास जो भैंस बिआय।
कहैं घाघ यह सांची बात, आपै मरै कि मलिकै खात।।

(सावन में घोड़ी, भादों में गाय और माघ महीने में भैस के द्वारा बच्चा पैदा करने से या
तो वह स्वयं मर जायेगी या मालिक का जीवन संकट में डाल देगी।)

      'घाघ' ने अपनी रचनाओं के माध्यम से सिर्फ व्यंग्य ही नहीं किया है वरन कतिपय रचनाओं में उन्होंने सादगीपूर्ण जीवनशैली पर भी विचार व्यक्त किये हैं। अधोलिखित रचना सिर्फ यही बयान नहीं करती कि घाघ ठेठ ग्रामीण पृष्ठभूमि से संबंधित थे वरन उनके जीवन दर्शन की झलक भी देती है -

भुइयाँ खेड़े हर है चार, घर है गिरिथिन औ गऊ दुधार।
अरहर की दाल जड़हन का भात, गागल निंबुआ औ घिव तात।।
खांड दही जो घर में होय, बाँके नैन परोसै जोय।
कहें घाघ तब सबही झूँठा, उहाँ छाड़ि इहवें बैकुँठा।।

(खेत गाँव के नजदीक हो, चार हल की खेती हो, घर में गृहस्थिन नारी हो, दूध देने वाली गाय हो, अरहर की दाल हो, जाड़े में पैदा होने वाला भात हो, रसदार नीबू और घी हो, घर ही में दुग्ध उत्पाद, शक्कर और दही हो, सुंदर नयनों वाली स्त्री भोजन परोसे तो घाघ कहते है कि बाकी सब इसके आगे झूठ है और स्वर्ग कहीं और नहीं, यहीं है।)

      'घाघ' की ऐसी ही सैकड़ों रचनाये हैं जो समय के साथ विस्मृत होती जा रही हैं। इसमें आश्चर्य नहीं कि एकाध पीढ़ी बाद लोग "घाघ" का नाम ही न जानें। लोककवियों एवं उनकी धरोहर के प्रति हमारी उपेक्षा के  फलस्वरूप आज यह स्थिति है कि जहाँ हम "घाघ" जैसे लोककवियों को विस्मृत करते जा रहे हैं वहीं कतिपय आधुनिक रचनाकार उनकी रचनाओं को अनुदित करके पश्चिमी साहित्य जगत में नाम कमा रहे हैं। कुछ दिन पूर्व दैनिक अमर उजाला के साप्ताहिक साहित्यिक खंड "आखर" में ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में अंग्रेजी के प्रोफेसर श्री अरविंद कृष्ण मेहरोत्रा की ये दो कवितायें (शायद मूल रूप से अंग्रेजी में लिखी गयी हैं) प्रकाशित हुईं थीं -

 पांवो में चुभते जूते, एक बदजुबान पत्नी,
पहले पैदा होने वाली लड़की।
एक बंजर जमीन, एक मूर्ख भाई,
ये अंतहीन दुःख का कारण बनते हैं ।।
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एक खर्चीला बेटा, एक तिरछी आंखों वाली भैंस।
एक बदमिजाज बैल, इनसे तत्काल छुटकारा पा लें ।।

      इन कविताओं को पढ़कर सहज ही यह अंदाजा लगाया जा सकता है कि इनकी प्रेरणा तथा विषयवस्तु  "घाघ" की उन दो रचनाओं से ली गई है, जिनका जिक्र इस लेख के प्रारंभ में किया गया है। संभवतः यूरोप के पाठकों को यह पता ही नहीं होगा कि भारत में शताब्दियों पहले 'घाघ' जैसे कई अन्य मूर्धन्य कवि ऐसी हजारों कवितायें/ दोहे व छंद कह गये हैं, जो आज भी कहावतों के रूप में प्रचलित हैं। पर कब तक.......



( डॉ. परितोष मालवीय )
17/07/2011, ग्वालियर