हर धार्मिक प्रदर्शन/आचरण, जो सार्वजनिक रूप से किया जाये, आमतौर पर
नागरिक बोध एवं शिष्टता के प्रतिकूल ही होता है। भारत जैसे बहुलतावादी
समाज में तो ये आक्रामक भी होता है। आखिर और क्या वजह है धार्मिक जुलूसों
के दौरान दंगे भड़कने की।
मैंने अपने छोटे से शहर ललितपुर में ये देखा है कि बाराबफात और हनुमान जयंती के जुलूस में हथियारों और युद्ध - कलाओं / करतबों का प्रदर्शन दूसरे धर्माबलंबियों को धमकाने के लिए ही होता है या ये दर्शाने के लिए कि देखो हम भी तलवार उठा सकते हैं और मौका पड़ने पर सर कलम भी कर सकते हैं। ऐसे जुलूसों में ध्वनि विस्तारकों द्वारा होने वाले ध्वनि प्रदूषण, आतिशबाजी द्वारा होने वाला वायु प्रदूषण और मूर्तियां/ ताजिये विसर्जन से होने वाला जल प्रदूषण समूची मानवता पर बोझ है। हमारी स्थिति उस कालिदास की तरह है जो अपनी ही शाख काट रहा है।
आमतौर पर ये मानकर चला जाता है कि धार्मिक कार्यक्रम / अनुष्ठान के लिए किसी भी तरह की प्रशासनिक अनुमति आवश्यक नहीं है क्योंकि इससे बहुसंख्यक आबादी की धार्मिक भावना जो जुड़ी है। मुट्ठीभर नास्तिकों या ऐसे नागरिक जो इस आक्रामक संस्कृति के खिलाफ हैं, की भावना की किसी को परवाह नहीं होती।
ये भी देखा है कि हम एक - दूसरे की बुरी बातों को बहुत जल्द अपना लेते हैं जबकि अच्छी आदतों को देर से । इसका कारण शायद यही है कि बुरे काम मेहनत तलब नहीं होते। प्राय: आक्रामकता की होड़ सी मच जाती है। उस भीड़ में शामिल सभ्य आदमी का आचरण भी उन्मादी ही हो जाता है। ये मनोवैज्ञानिक पहलू है। भीड़ में शामिल आदमी अपनी पहचान ही नहीं खोता, अपने होशोहवास भी खो देता है।
मैंने अपने छोटे से शहर ललितपुर में ये देखा है कि बाराबफात और हनुमान जयंती के जुलूस में हथियारों और युद्ध - कलाओं / करतबों का प्रदर्शन दूसरे धर्माबलंबियों को धमकाने के लिए ही होता है या ये दर्शाने के लिए कि देखो हम भी तलवार उठा सकते हैं और मौका पड़ने पर सर कलम भी कर सकते हैं। ऐसे जुलूसों में ध्वनि विस्तारकों द्वारा होने वाले ध्वनि प्रदूषण, आतिशबाजी द्वारा होने वाला वायु प्रदूषण और मूर्तियां/ ताजिये विसर्जन से होने वाला जल प्रदूषण समूची मानवता पर बोझ है। हमारी स्थिति उस कालिदास की तरह है जो अपनी ही शाख काट रहा है।
आमतौर पर ये मानकर चला जाता है कि धार्मिक कार्यक्रम / अनुष्ठान के लिए किसी भी तरह की प्रशासनिक अनुमति आवश्यक नहीं है क्योंकि इससे बहुसंख्यक आबादी की धार्मिक भावना जो जुड़ी है। मुट्ठीभर नास्तिकों या ऐसे नागरिक जो इस आक्रामक संस्कृति के खिलाफ हैं, की भावना की किसी को परवाह नहीं होती।
ये भी देखा है कि हम एक - दूसरे की बुरी बातों को बहुत जल्द अपना लेते हैं जबकि अच्छी आदतों को देर से । इसका कारण शायद यही है कि बुरे काम मेहनत तलब नहीं होते। प्राय: आक्रामकता की होड़ सी मच जाती है। उस भीड़ में शामिल सभ्य आदमी का आचरण भी उन्मादी ही हो जाता है। ये मनोवैज्ञानिक पहलू है। भीड़ में शामिल आदमी अपनी पहचान ही नहीं खोता, अपने होशोहवास भी खो देता है।