मध्यप्रदेश
के उत्तरी भाग में होने के कारण ग्वालियर बारिश के मामले में पिछड़ जाता
है। बंगाल की खाड़ी का मानसून बगल से निकल कर दिल्ली तक पहुंच जाता है और
ग्वालियर वासी अच्छे दिन की राह तकते रहते हैं। अरब सागर के मानसून का
लोटा ग्वालियर तक आते - आते खाली हो जाता है। अत: जब भी 'म.प्र. में बारिश
का तांडव' इत्यादि शीर्षक से छपी खबरें पढ़े, तो उसमें से ग्वालियर को
हटाना न भूलें। पिछले 14 साल से ग्वालियर
में हूं, पर बारिश का तांडव नहीं देखा। यहां के लोगों से पूछो तो सगर्व
कहते हैं कि हमारे बचपन में तो 5 - 7 दिन की झिर लगती थी, अब नहीं लगती।
वजह एक ही है- जंगलों की कटाई। पास के शिवपुरी के जंगलों से बाघ को गायब
हुए वर्षों हो गए, सोनचिरैया कई साल से नहीं दिखी है, मुरैना के मोर कम हो
रहे हैं, आसपास नज़र दौडायें तो बबूल की झाड़ियां हीं नज़र आती हैं, फलदार
वृक्ष न के बराबर हैं। जुलाई में भी सूरज देवता इतने प्रसन्न रहते हैं कि
हरा जामुन ठुर्रा कर सीधा पीला हो जाता है, उसे बारिश से फूलकर बैगनी होते
नहीं देखा। हो भी जाये तो जामुन का आकार कंचे के बराबर ही होता
है।........................... . बारिश के तांडव की राह तकता सूखा मन
Tuesday 29 July 2014
Saturday 19 July 2014
राष्ट्रवाद बनाम मानवतावाद
यह दौर भले ही विश्व भर में राष्ट्रवाद के उभार का दौर है। राष्ट्रवाद
को लेकर सभी की अपनी - अपनी अवधारणा है। मेरी भी है। राष्ट्रवाद की सोच
भले ही व्यक्ति और समाज से एक पायदान ऊपर है परंतु अंतत: कहीं न कहीं ये
संकुचित विचारधारा ही है। भीष्म पितामह इसी राष्ट्रवाद के मोह में
दुराचारियों का साथ देते रहे। महाराणा प्रताप का राष्ट्रवाद मेवाड़ तक
सीमित था और अगल - बगल के भारतीय राजपूत भी उनके शत्रु थे। भारतवासियों
का राष्ट्रवाद उन्हें भारत को विश्वगुरू बनने का स्वप्न
दिखाता है। तो इज़राइल और फिलिस्तीन वासियों की अपने राष्ट्र को
सर्वोपरि मानने की अपनी धारणा है। अत: जब सारे भेद खुल चुके हैं और सारे
हालात हमारे सामने हैं, मैं ऐसी किसी भी अवधारणा के साथ नहीं हो सकता जो
स्वयं को, अपने परिवार, अपनी जाति, अपने क्षेत्र, अपने समाज, अपने
प्रदेश, अपनी भाषा, अपने राष्ट्र को सर्वोपरि मानती हो। ऐसी श्रेष्ठता
किस काम की कि मनुष्य की पीड़ा ही दिखायी न दे। मैं लखनऊ और बंगलौर के
बलात्कार से भी उतना ही आहत होता हूं जितना गाजा में एक हिंसक तंत्र
द्वारा भाेलेभाले नागरिकों की हिंसा से। मैं ऐसा भारत नहीं चाहता जो अपने
आस-पास के राष्ट्रों एवं गरीब राष्ट्रों का शोषण करे। अत: राष्ट्रवाद से
कहीं बढ़कर है ''मानवतावाद''। मनुष्य को बचाओ, राष्ट्र अपनेआप बच
जायेगा।
मंशापूर्ण माता मंदिर
मेरे
घर के पास ऐसे दो मंदिर हैं जिनका नाम मंशापूर्ण है - मंशापूर्ण माता
मंदिर और मंशापूर्ण हनुमान मंदिर। यानि शब्द के अनुसार देखें ताे ये
ऐसे मंदिर हैं जहां आने पर भक्तों की मंशापूर्ण होती है। इन नामों पर
विचार करते - करते दो प्रश्नों का उत्तर भी खोज रहा हूं -
1. क्या यह मंदिर सभी तरह के लोगों की सभी तरह की अभिलाषायें पूर्ण करता है? यदि ऐसा है तो बहुत ही खतरनाक बात है। हाफिज सईद या अन्य आतंकवादियों की अभिलाषा तो दूर की बात है, किसी जेबकतरे या शराबी की अभिलाषा भी समाज के लिए बहुत घातक है।
2. क्या अन्य मंदिर जिनके नाम मंशापूर्ण नहीं हैं, वे भक्तों की मंशापूर्ण नहीं करते ?
आस्तिक भक्त इन प्रश्नों से चिढें नहीं, बल्कि ये उत्तर तलाशें कि कहीं ऐसा हमारे लालच के दोहन के लिए तो नहीं है। .....................
आज ही ग्वालियर के एक डाॅक्टर साहब बता रहे थे कि उनकी क्लीनिक की सफलता का सारा श्रेय सांई बाबा को जाता है। जबसे वे उनके भक्त बने हैं, उनके क्लीनिक में दिन-दूनी रात चौगुनी वृद्धि हुई है। ................. उनकी बात सुनकर मुझ जैसे पापात्मा के मन में सबसे पहले यही प्रश्न कौधा कि क्या सांई बाबा अपने भक्त के क्लीनिक को दिन दूना रात चौगुना बढ़ाने के लिए पूरे मुहल्ले को बीमार करने पर आमादा हैं?
1. क्या यह मंदिर सभी तरह के लोगों की सभी तरह की अभिलाषायें पूर्ण करता है? यदि ऐसा है तो बहुत ही खतरनाक बात है। हाफिज सईद या अन्य आतंकवादियों की अभिलाषा तो दूर की बात है, किसी जेबकतरे या शराबी की अभिलाषा भी समाज के लिए बहुत घातक है।
2. क्या अन्य मंदिर जिनके नाम मंशापूर्ण नहीं हैं, वे भक्तों की मंशापूर्ण नहीं करते ?
आस्तिक भक्त इन प्रश्नों से चिढें नहीं, बल्कि ये उत्तर तलाशें कि कहीं ऐसा हमारे लालच के दोहन के लिए तो नहीं है। .....................
आज ही ग्वालियर के एक डाॅक्टर साहब बता रहे थे कि उनकी क्लीनिक की सफलता का सारा श्रेय सांई बाबा को जाता है। जबसे वे उनके भक्त बने हैं, उनके क्लीनिक में दिन-दूनी रात चौगुनी वृद्धि हुई है। ................. उनकी बात सुनकर मुझ जैसे पापात्मा के मन में सबसे पहले यही प्रश्न कौधा कि क्या सांई बाबा अपने भक्त के क्लीनिक को दिन दूना रात चौगुना बढ़ाने के लिए पूरे मुहल्ले को बीमार करने पर आमादा हैं?
महात्मा गांधी को गाली
शायद
महात्मा गांधी को गाली देना इस देश में सबसे आसान है। ताजा उदाहरण अरुंधती
रॉय का है। उनके कई बयानों का मैं विरोधी एवं प्रशंसक, दोनों रहा हूं।
परंतु हमेशा सनसनीखेज बयान देना ही आपके प्रगतिशील हाेने का प्रमाण नहीं
होता। ............. गांधी जी को गाली तो संघ वाले भी देते
हैं.............. क्योंकि गांधी को गाली देना सबसे आसान है। गांधी को
गाली देने से किसी की भावनायें आहत नहीं होती और पिटने का
भी डर नहीं होता। क्या ऐसी गालियां अंबेडकर, चंद्रशेखर आजाद, भगत सिंह
या नमो को दी जा सकती हैं। गांधी तो इस मामले में भी कम रह गए कि उनके
अपमान पर न कोई हिंदू वादी संगठन कुछ बोलता है, न वामपंथी, न प्रगतिशील, न
गुजराती और तो और किसी अखिल भारतीय वैश्य - गहोई समाज की भावनायें भी
आहत नहीं होती है।................ सो बिना संकोच गाली देते रहें। आप
जितनी गाली उस महात्मा को देंगे, वो आपको उतना ही अधिक बेचैन करेगा।
Friday 11 July 2014
फेसबुक और गांधीवाद
सभी जानते हैं कि फेसबुक एक मुक्त आकाश है। जिसे जो मन में आये लिखे/
साझा करे। पर जब हम इस सुविधा को इस्तेमाल किसी को कोसने और गाली देने
में करते हैं, तो मामला गड़बड़ हो जाता है। फेसबुक पर नाथूराम गोडसे फैन्स
क्लब भी है। अब नाथूराम के फेन हैंं तो गांधी को कोसना तो उनका
राष्ट्रधर्म हो ही जाता है। .............. एक मित्र की दीवार पर ऐसी ही
पोस्ट पढ़ी जिसमें दो माह पूर्व इंडिया टुडे की खबर को आधार बनाते हुए
गांधी जी को व्यभिचारी और नारीलोलुप साबित किया गया। ............................
बात दृष्टि की है। आपको जो अच्छा लगता है, आप उस पर यकीन करना चाहते
हैं। मैं ऐसे सैकड़ों आलेख बता सकता हूं जिनमें गांधीजी को संत बताया गया
है और उपर्युक्त सभी आरोपों को एक प्रयोग। ...............आज भी जैन मुनि
किसी की नज़र में संत हैं तो किसी की नज़र में बेशर्म कि जवान
लड़कियों के समक्ष नंगधडंग बैठे रहते हैं। ऐसे लोग उनके त्याग और तपस्या
के बारे में सोचना नहीं चाहते।............... और बात ये भी है कि इस
प्रकार के लेख लिखने के पीछे मंशा क्या है और शब्द-चयन कैसा
है..............मैं चाहूं तो नाथूराम गोडसे के बारे में कुछ भी अनाप-शनाप
लिख सकता हूं, शब्दों और भावों की कोई कमी नहीं है। पर गांधीवाद मुझे ऐसा
करने से रोकता है।.......... दुख ये है कि गांधी को कोसते समय कोई
गांधीवाद पर विचार नहीं करता........ ये गांधी का ही असर है कि इस
लोकतंत्र में किसी को भी कोई भी बकवास करने, गाली देने की छूट प्राप्त
है। जरा विचार करें कि क्या किसी व्यभिचारी के पीछे लाखों का जनसमूह
लगभग 35 वर्ष तक साथ रह सकता है? क्या वजह है कि मोदी जी शपथ लेने के
पहले राजघाट जाते हैं और प्रधानमंत्री की सीट पर बैठने के पहले गांधी की
फाेटो पर पुष्प अर्पित करते हैं?.................
Sunday 6 July 2014
'आप'
यदि
सांप्रदायिक और जातिगत आधार पर वोटिंग होती तो आम आदमी पार्टी की
स्थिति इतनी शानदार नहीं होती.................दिल्ली की जनता ने
परिपक्वता का परिचय दिया है। पिछले चुनाव में 16प्रतिशत वोट लाने
वाली बीएसपी पूरे परिदृश्य से गायब हो गयी है जिसका लाभ 'आप' को मिला।
मेरे हिसाब से दिल्ली में ये कांग्रेस और भाजपा दाेनों की हार है।
कांग्रेस की इसलिए कि वे जनता का मूड भाप नहीं पाये और
आाप काे लगातार खारिज करते रहे। भाजपा की हार इसलिए कि उन्होंने मोदी
को ही सभी मर्जों की दवा मान लिया और बिस्तर तान के सो गए।
..........................
अब भी समय है कि लोकसभा चुनावों में भाजपा मोदी फैक्टर को इतना सशक्त न माने। पर आम आदमी पार्टी की सही जीत मैं उस दिन मानूंगा जब वह उत्तर प्रदेश में सपा और बसपा जैसी पार्टियों को शिकस्त देगी। दिल्ली की शिक्षित जनता को समझााना आसान है पर साइकिल और हाथी देखकर मतवाली हो जाने वाली भीड़ को समझााना मुश्किल............'आप' के पदार्पण के बाद क्या हालत हो गयी है परंपरागत राजनीति की..........बहुमत से तीन सीट दूर बैठी बीजेपी भी 'हॉर्स ट्रेडिंग' के जोखिम को उठाने को तैयार नहीं है। अब से कुछ वर्ष पहले ऐसी स्थिति होती तो अब तक तो मंत्रीमंडल भी तय हो गया होता.........ऐसा भी दिन आयेगा कि राजनीतिक दल सरकार बनाने से कतरायेगे, सोचा न था...................अगर 'आप' ने जैसी संगठनात्मक क्षमता दिल्ली में दर्शायी है, वैसी ही उत्तर प्रदेश में दर्शा दे, तो यकीन मानिये यू.पी. की जनता इतनी त्रस्त है कि उन्हें सिर ऑंखों पर बैठा लेगी....................
अब भी समय है कि लोकसभा चुनावों में भाजपा मोदी फैक्टर को इतना सशक्त न माने। पर आम आदमी पार्टी की सही जीत मैं उस दिन मानूंगा जब वह उत्तर प्रदेश में सपा और बसपा जैसी पार्टियों को शिकस्त देगी। दिल्ली की शिक्षित जनता को समझााना आसान है पर साइकिल और हाथी देखकर मतवाली हो जाने वाली भीड़ को समझााना मुश्किल............'आप' के पदार्पण के बाद क्या हालत हो गयी है परंपरागत राजनीति की..........बहुमत से तीन सीट दूर बैठी बीजेपी भी 'हॉर्स ट्रेडिंग' के जोखिम को उठाने को तैयार नहीं है। अब से कुछ वर्ष पहले ऐसी स्थिति होती तो अब तक तो मंत्रीमंडल भी तय हो गया होता.........ऐसा भी दिन आयेगा कि राजनीतिक दल सरकार बनाने से कतरायेगे, सोचा न था...................अगर 'आप' ने जैसी संगठनात्मक क्षमता दिल्ली में दर्शायी है, वैसी ही उत्तर प्रदेश में दर्शा दे, तो यकीन मानिये यू.पी. की जनता इतनी त्रस्त है कि उन्हें सिर ऑंखों पर बैठा लेगी....................
'ब्लैक आउट डे'
बी.एस.एन.एल.
ने भी बाकी टंलीकॉम कंपनियों की राह पर चलते हुए 31 दिसंबर व 01 जनवरी
को 'ब्लैक आउट डे' घोषित कर दिया है यानि कोई भी एस.एम.एस. और फोन कॉल
रियायती दरों पर नहीं होगी। मैं इस नितांत पूंजीवाद कदम की भर्त्सना
करता हूं और विरोध स्वरूप अपने सभी मित्रों/ शुभचिंतकों/ परिजनों को
अभी से नव वर्ष की शुभकामनायें देता हूं। वैसे भी किसी एक दिन में मेरा
यकीन नहीं है................01 के बजाए 02 को संदेशों का उत्तर और नव
वर्ष की शुभकामना दूंगा तो पहाड़ नहीं टूट जाएगा.................तो
जिन्हें मेरे टेलीफोन संदेश न मिले वे खफा न हों............आप सभी को
नववर्ष की शुभकामनायें...........नववर्ष आपके, आपके परिवार, देश-दुनिया
और मानवता के लिए शुभ हो, यही कामना है..................
लद्दाख
दाे
बार लद्दाख हो आया हूं। बौद्ध कर्मकांडों एवं संघ को नजदीक से देखने का
अवसर मिला यद्यपि लद्दाख या तिब्बत में मौजूद बौद्ध धर्म अपने
वास्तविक स्वरूप से काफी अलग है। मैं इस बार कई उद्देश्यों के साथ गया
था। बौद्ध धर्म की वैज्ञानिकता एवं तार्किकता से कुछ हद तक मैं प्रभावित
रहा हूं। परंतु किसी भी धर्म के रीतिरिवाजों और कर्मकांडों को जाने
बिना किसी निष्कर्ष पर पहुचना बड़ी भूल होगी। कर्मकांड किसी भी धर्म का महत्वपूर्ण भाग होते हैं। अत: उनके रीतिरिवाजों को नजदीक से जानना इस यात्रा को एक उद्देश्य था।
मैं अपनी यात्रा में यह भी पता लगाना चाहता था कि वहां किस हद तक बौद्ध धर्म की प्राचीन शुद्धता का पालन हो रहा है और किस हद तक उनके उपदेशों को अंधविश्वास ने घेर लिया है या बौद्ध धर्म एवं बुद्ध के सिद्धांतों की बेतुकी मान्यतायें क्या हैं।
मैं यह भी जानना चाहता था कि किस हद तक बुद्ध द्वारा निर्धारित किया गया भिक्षु क्रम सामुदायिक सेवा में रत है। क्या यह क्रम सिर्फ अपने लिए तथाकथित जीवन की शुद्धता को बनाये रखने में व्यस्त है अथवा यह सामान्य जनमानस की सेवा, परामर्श या उसे आदर्श बनाने में रत है, जैसा कि भगवान बुद्ध चाहते थे।.................. इन प्रश्नों के आसपास ही होगा मेरा यात्रा वृतांत............. बस थोड़ा सा इंतजार
मैं अपनी यात्रा में यह भी पता लगाना चाहता था कि वहां किस हद तक बौद्ध धर्म की प्राचीन शुद्धता का पालन हो रहा है और किस हद तक उनके उपदेशों को अंधविश्वास ने घेर लिया है या बौद्ध धर्म एवं बुद्ध के सिद्धांतों की बेतुकी मान्यतायें क्या हैं।
मैं यह भी जानना चाहता था कि किस हद तक बुद्ध द्वारा निर्धारित किया गया भिक्षु क्रम सामुदायिक सेवा में रत है। क्या यह क्रम सिर्फ अपने लिए तथाकथित जीवन की शुद्धता को बनाये रखने में व्यस्त है अथवा यह सामान्य जनमानस की सेवा, परामर्श या उसे आदर्श बनाने में रत है, जैसा कि भगवान बुद्ध चाहते थे।.................. इन प्रश्नों के आसपास ही होगा मेरा यात्रा वृतांत............. बस थोड़ा सा इंतजार
लाल रंग का शरबत
ग्वालियर
में भी फूलबाग पर पंडाल लगाकर बुद्ध जयंती के अवसर पर हनुमान जयंती की ही
तर्ज पर चटख लाल रंग का शरबत पिलाया जा रहा है तथा माइक में 'बुद्धम शरणम
गच्छामि' जैसा कुछ बज रहा है। कोई दलित-पिछड़ा संघ ये काम कर रहा है।
यानि महात्मा बुद्ध दलित हो गए। आगे बढ़ा तो पुराने हाइकोर्ट के पास
परशुराम जयंती के अवसर का बड़ा सा पोस्टर भी ब्राहाण बंधुओं को
शुभकामनायें दे रहा है। कहीं ये भी पढ़ने में आया था कि महावीर और गौतम
बुद्ध पर क्षत्रिय समाज ने अपना होने का दावा ठोक दिया था। कृष्ण तो हैं
ही यादव और चित्रगुप्त कायस्थ................ ईश्वर को तो हमने
निपटा दिया, अब गाय, बैल, शेर, चूहा की बारी है
Does he know a mother's heart
वैसे तो किसी भी कार्य का सफलतापूर्वक पूरा होना बेहद सुखद एहसास लेकर आता है। परंतु जिस अनुवाद कार्य में मैं विगत छह माह से तल्लीन था, वह आज पूरा हुआ। इतना ही कहूंगा कि श्री अरुण शौरी की इस पुस्तक का अनुवाद कर मैं स्वयं भी गौरवान्वित अनुभव कर रहा हूं। इस पुस्तक के अनुवाद के बाद अरुण्ा शौरी और ज़िंदगी के बारे में मेरा नजरिया अवश्य बदला है। इस पुस्तक के माध्यम से ही मुझे इस्लाम, ईसाईधर्म, बौद्धधर्म, हिंदू धर्म, आध्यात्म के अलावा कुछ संतों की विचारधारा को नजदीक से समझने का अवसर मिला। 450 पेज की इस पुस्तक के बारे में एक पैराग्राफ में कुछ नहीं कहा जा सकता। मुझे इसके जल्द बाज़ार में आने की उम्मीद है।
बिजली
बत्ती गोल रहने के फायदे (डायरेक्ट U P से) -
1. टी वी न देख पाने के कारण आपके पास खूब समय होता है।
2. लोग बंद कमरों से निकलकर गली चौराहों पे आ जाते हैं।
3. अमूल्य बिजली बचाकर आप इस पृथ्वी को कार्बन उत्सर्जन से प्रदूषित नहीं करते।
........ लिखने को तो बहुत कुछ है पर बिन बत्ती मोबाइल भी गोल हो रहा है। बाकी बात कल सुबह इनवर्टर से मोबाइल चार्ज करके होगी। ......... जाते - जाते एक अपील - दिल्ली, गुजरात और बाकी भाग्यशाली जगहों पे रहने वाले मित्र कृपया यू पी वालों से earth hour मनाने की अपील ना करें।
1. टी वी न देख पाने के कारण आपके पास खूब समय होता है।
2. लोग बंद कमरों से निकलकर गली चौराहों पे आ जाते हैं।
3. अमूल्य बिजली बचाकर आप इस पृथ्वी को कार्बन उत्सर्जन से प्रदूषित नहीं करते।
........ लिखने को तो बहुत कुछ है पर बिन बत्ती मोबाइल भी गोल हो रहा है। बाकी बात कल सुबह इनवर्टर से मोबाइल चार्ज करके होगी। ......... जाते - जाते एक अपील - दिल्ली, गुजरात और बाकी भाग्यशाली जगहों पे रहने वाले मित्र कृपया यू पी वालों से earth hour मनाने की अपील ना करें।
अद्यतन (Latest) प्रौद्योगिकी
भौत
दु:खी हूं.................. छह महीने पहले जिस ऐंड्रायड फोन को अद्यतन
(Latest) प्रौद्योगिकी वाला मानकर खरीदा था, अब वह बूढ़ा घोषित हो गया
है........... ऐसा विकास का मॉडल भी किस काम का, जो छह महीने में आपको
बूढ़ा घोषित कर दे अौर साल डेढ़ साल में जबरदस्ती रिटायर करा
दे............. चाहूं या न चाहूं, कुछ दिन में इस माेबाइल को अलविदा
कहने को विवश हो जाऊंगा। .............. एक ये प्रौद्योगिकी है जो कंगारू
की तरह कुलांचे मार रही है और दूसरी ओर पूरा चिकित्सा विज्ञान अब भी
चंद एंटीबायोटिक पर ही र्निभर हैं................ फिर वही इंडिया और
भारत के बीच का मामला
सच्चे हिंदू
अभी -
अभी फेसबुक पर टहलते हुए पढ़ा कि एक अंग्रेज व्यापारी गीता के कुछ
श्लोक पढ़कर हिंदू धर्म से इतना प्रभावित हुआ कि अपना घरबार छोड़कर साधु
बन गया। जिन महोदय ने ये सूचना साझा की, उन्होंने यह भी लिखा कि
फेसबुक पर मौजूद सच्चे हिंदू इस पर लाइक ठोको ताकि दुनिया में हिंदू धर्म
का डंका बज जाये। ............. मुझे समझ नहीं आ रहा है कि मुझे इस
पोस्ट पर हंसना चाहिए या रोना............. एक अंग्रेज
धर्म का मर्म समझ गया और आप लाइक ठुकवाने में लगे हैं। दरअसल आप अपनी सोच
में इतने छोटे हो गए हैं कि केवल हिंदूओं (सच्चे वाले) से इस पर लाइक
ठोकने की अपील कर रहे हैं और स्वयं को फेसबुक पर स्वामी विवेकानंद समझ
रहे हैं। आपको ये भी समझने का शऊर नहीं है कि वो अंग्रेज क्या फेसबुक पर
लाइक ठोक कर हिंदू धर्म से प्रभावित हुआ था?........................... .....................ऐसे हिंदुओं से भगवान बचाये
समाज को हिंसक बनाने का एक नया तरीका
मैं
ऐसे कई लोगों को जानता हूँ जो डिस्कवरी चैनल पर शेर द्वारा निरीह मेमने के
शिकार के दृश्य से भी विचलित हो जाते हैं। हिंसा तो छोडिये मासाहार करते
लोगों को देखते ही उन्हें वितृष्णा हो जाती है। सिनेमा और टी वी भी हिंसक
और अश्लील दृश्यों को दिखाने के पहले एडवाइजरी जारी करते हैं या उस हिस्से
को सेंसर कर देते हैं। और ऐसा करना भी चाहिए। पर इन दिनों इराक में इस्लामी
आतंकियों द्वारा लोगों के सिर कलम करने और
कटे नरमुंडों के दृश्य फेसबुक पर आम हो गए हैं। कुछ मित्र इन हिंसक
दृश्यों को इस्लाम के हिंसक चेहरे के नाम पर लगातार शेयर कर रहे हैं। मुझे
नहीं पता कि वे ऐसा इराक की निरीह जनता और बच्चों के प्रति गहरी संवेदना के
चलते कर रहे हैं, इराक की समस्या को फेसबुक के माध्यम से सुलझाने के
दिवास्वप्न के चलते कर रहे हैं, या इस बहाने इस्लाम की तुलना में हिन्दू
धर्म को श्रेष्ठ साबित करने में जुटे हैं पर इन हिंसक दृश्यों को देखकर मुझ
जैसे अनेक लोग विचलित हो रहे हैं। ये हमारे समाज को हिंसक बनाने का एक नया
तरीका है। क्या यथार्थ चित्रण के नाम पर संवेदनाओं से खेलना उचित है? क्या
इन दृश्यों को वे अपने बच्चों और घर की महिलाओं को दिखा सकते हैं? यदि
नहीं तो आप सभी से गुजारिश है कि अपने समाज की भावनाएं कोमल बनी रहने दें।
हम अपने देश को इराक नहीं बनाना चाहते। इकबाल का शेर उन आतंकियों पर सटीक
बैठता है-
"तुम्हारी तहजीब अपने खंज़र से ख़ुदकुशी करेगी,
शाखे-नाज़ुक पे जो आशियाँ होगा, नापायेदार होगा।"
"तुम्हारी तहजीब अपने खंज़र से ख़ुदकुशी करेगी,
शाखे-नाज़ुक पे जो आशियाँ होगा, नापायेदार होगा।"
चमत्कार को नमस्कार
'चमत्कार
को नमस्कार' काफी प्रचलित कहावत है हमारे समाज में। स्वयं को परंपरागत
सनातनी तो नहीं मानता, क्याेंकि वैसा आचरण नहीं है। परंतु शंकराचार्य -
सांई विवाद के चलते कुछ प्रश्न हैं जो मन में उठ रहे हैं -
1. यदि सांई सर्वधर्म समभाव के प्रतीक हैं तो सांई के मंदिर को 'मंदिर' ही क्यों संबोधित किया जाता है, सांई मस्जिद, सांई चर्च, सांई जिनालय या सांई गुरुद्वारा क्यों ? सांई भक्त कोई नया नाम क्यों नहीं गढ़ लेते?
2. सांई को यदि सूफी माना लिया जाये तो उनकी सर्वधर्म समभाव या हिंदु - मुस्लिम एकता संबंधित रचनायें कहाँ हैं?
3. हिंदू और मुस्लिम भक्त होने मात्र से क्या उन्हें सूफी कहा जा सकता है? यदि हां तो क्या निर्मल बाबा को सूफी संत कहा जा सकता है?
4. सांई के दर्शन या मत को प्रतिपादित करती हुई रचना कौन सी है? या केवल चमत्कार ही भक्ति का अाधार है?
5. यदि चमत्कार ही भक्ति का आधार है तो क्या सांई भक्त 100 साल बाद निर्मल बाबा या जादूगर पी.सी.सरकार को भी इसी तरह पूजने लग जायेंगे?
6. सांई की प्रतिमा पारंपरिक हिंदु देवी देवताओं के मध्य स्थापित करना कहां तक जायज है? क्या ऐसा मस्जिद, चर्च या गुरुद्वारा में किया जा सकता है?
7. बेचारे सांई बाबा जिन्होंने पूरा जीवन फक्कड़ी में गुजारा, उन्हें चांदी की प्रतिमा और सोने का मुकुट लगाना क्या उनका अपमान नहीं है?
न ही परंपरागत हिंदू हूं, न सांई बाबा का विरोधी , पर शंकराचार्य के कुछ प्रश्न जायज लगते हैं। मुझे ज्यादा समस्या 'अंध भक्तों' और धर्म स्थलों से जुड़ी व्यावसायिकता से है।
1. यदि सांई सर्वधर्म समभाव के प्रतीक हैं तो सांई के मंदिर को 'मंदिर' ही क्यों संबोधित किया जाता है, सांई मस्जिद, सांई चर्च, सांई जिनालय या सांई गुरुद्वारा क्यों ? सांई भक्त कोई नया नाम क्यों नहीं गढ़ लेते?
2. सांई को यदि सूफी माना लिया जाये तो उनकी सर्वधर्म समभाव या हिंदु - मुस्लिम एकता संबंधित रचनायें कहाँ हैं?
3. हिंदू और मुस्लिम भक्त होने मात्र से क्या उन्हें सूफी कहा जा सकता है? यदि हां तो क्या निर्मल बाबा को सूफी संत कहा जा सकता है?
4. सांई के दर्शन या मत को प्रतिपादित करती हुई रचना कौन सी है? या केवल चमत्कार ही भक्ति का अाधार है?
5. यदि चमत्कार ही भक्ति का आधार है तो क्या सांई भक्त 100 साल बाद निर्मल बाबा या जादूगर पी.सी.सरकार को भी इसी तरह पूजने लग जायेंगे?
6. सांई की प्रतिमा पारंपरिक हिंदु देवी देवताओं के मध्य स्थापित करना कहां तक जायज है? क्या ऐसा मस्जिद, चर्च या गुरुद्वारा में किया जा सकता है?
7. बेचारे सांई बाबा जिन्होंने पूरा जीवन फक्कड़ी में गुजारा, उन्हें चांदी की प्रतिमा और सोने का मुकुट लगाना क्या उनका अपमान नहीं है?
न ही परंपरागत हिंदू हूं, न सांई बाबा का विरोधी , पर शंकराचार्य के कुछ प्रश्न जायज लगते हैं। मुझे ज्यादा समस्या 'अंध भक्तों' और धर्म स्थलों से जुड़ी व्यावसायिकता से है।
सांई भक्ति
शंकराचार्य
द्वारा सांई भक्ति पर उठाये गए प्रश्नों में लोगों की पृथक राय हो सकती
है। परंतु मंदिरों में देव प्रतिमाओं के बीच या मंदिर प्रांगण में सांई
बाबा को बैठाने का कार्य कई पुजारी सहर्ष करते रहे हैं। निस्संदेह ये
वही पुजारी हैं जो मंदिर को एक दिव्य स्थल के बजाय निज संपत्ति एवं
आय का अक्षय स्रोत मानकर चलते हैं। पुजारी जी ने जैसे ही देखा कि सांई
बाबा की दुकान चल निकली है, वैसे ही स्वयं अपने मंदिर में लेकर बैठ गए सांई बाबा को ............ .............................. .............................. ..........
................. ........... ...... ......................जैसे कुछ
किराने की दुकान पे बोर्ड टंगा होता है कि 'यहां मोबाइल रिचार्ज होता
है'........................ उसी तर्ज पर पारंपरिक भगवान के साथ-साथ सांई
बाबा, शनि महाराज....... इत्यादि भी स्थापित कर दिए जाते हैं। कहीं
ग्राहक भाग न जाये अथवा बगल की दुकान में न चला
जाये........................ और संकट यह है कि बगल के शोरूम में पालकी,
भंडारा, आरती, रेवड़ी, सर्व धर्म पूजोपासना, अगरबत्ती, लोवान, भगवा झंडा,
हरा झंडा सब मौजूद हैं।..................... अत: सांई भक्ति के विरोध
से ज्यादा जरूरी है धार्मिक व्यावसायिकता पर रोक । अमीर मंदिरों/
मस्जिदों/ गुरुद्वारों/ चर्च/ जिनालय/ मठ/ आश्रम से 30% आयकर क्यों न
बसूला जाये ?
महाभारत और रामायण
महाभारत
और रामायण में सभी को वेदों का अध्ययन करते बताया गया है। यानि यह तय है
कि महाभारत और रामायण उत्तर वैदिक काल के हुए। पूर्व वैदिक काल के
नहीं। और तमाम शोधों के बाद प्रथम वेद ऋग्वेद का समय 1500 - 1000
र्इ्र.पू. का साबित (भाषा के विकास के आधार पर भी) हो चुका है। हडप्पा
के साथ - साथ विश्व की पांच - छह जगहों की सभ्यतायें सबसे प्राचीन
साबित हो चुकी हैं। ............. दरअसल हडप्पा में
पहली बार मनुष्य ने एक साथ रहना ( सही मायने में सभ्य होना) सीखा था।
इसके पूर्व की किसी सभ्यता के कोई प्रमाण आज मौजूद नहीं हैं..........
हां आस्तिक लोग उत्साह में सतयुग - कलजुग की बात करने लगते हैं जो
धार्मिक दृष्टिकोण से तो ठीक है पर वैज्ञानिक, तार्किक एवं साक्ष्य के
दृष्टिकोण से नहीं............
इतिहासबोध
मैं
किसी इतिहासकार द्वारा दिए गए वृतांत या शोध काे अंतिम नहीं मान सकता,
चाहे वे पश्चिम के हों या भारतीय। कई पुस्तकों और इतिहास को गहराई से
पढ़ने से सिर्फ एवं चीज हासिल होती है - इतिहासबोध। ..................
और मेरा इतिहास बोध यह कहता है कि किसी भी सभ्यता या जीवनस्तर का एक
नियत एवं क्रमिक विकास होता है..... ऐसा नहीं होता कि किसी एक क्षेत्र
में तो हम प्राैद्योगिकी के चरम पर पहुंच
जायें और दूसरे क्षेत्र में प्राथमिक अवस्था में हो............ विकास
अन्योन्याश्रित होता है। ऐसा कभी नहीं हो सकता कि केले के पत्ते लपेट
कर हम मिसाइल का परीक्षण करें। .............................. ..........
यदि नाभिकीय बम या उससे उन्नत किसी प्राैद्योगिकी के होने का
साक्ष्य है ताे अन्य चीजें भी उतनी ही उन्नत अवस्था में मिलनी चाहिए
थीं............... हड़प्पावासी मृदभांड का प्रयोग करते थे एवं उनकी
स्थापत्य कला/ मूर्तिकला/ बाजार योजना इत्यादि प्राथमिक स्तर की ही
थीं............. वे क्रमश: सभ्य हो रहे थे और अनुशासित समाज के रूप में
विकसित हो रहे थे...................माफ करें नाभिकीय बम की तकनीक जानने
वाला समाज मृदभांड का प्रयोग नहीं कर सकता, उसकी लिपि अविकसित नहीं हो
सकती, ...................... हां यदि हडप्पा की भविष्य में होने वाली
खुदाई में मोबाइल फाेन/ कंप्यूटर या संचार प्रणाली के स्पष्ट सबूत मिल
जायें तो नाभिकीय बम या उन्नत सभ्यता की बात 'लॉजिकल' हो जायेगी। तब
तक मैं अन्य सभी कयासों को कपोल कल्पना एवं प्राचीन भारत के प्रति
भावुकता ही मानूंगा..................
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