मैं
ऐसे कई लोगों को जानता हूँ जो डिस्कवरी चैनल पर शेर द्वारा निरीह मेमने के
शिकार के दृश्य से भी विचलित हो जाते हैं। हिंसा तो छोडिये मासाहार करते
लोगों को देखते ही उन्हें वितृष्णा हो जाती है। सिनेमा और टी वी भी हिंसक
और अश्लील दृश्यों को दिखाने के पहले एडवाइजरी जारी करते हैं या उस हिस्से
को सेंसर कर देते हैं। और ऐसा करना भी चाहिए। पर इन दिनों इराक में इस्लामी
आतंकियों द्वारा लोगों के सिर कलम करने और
कटे नरमुंडों के दृश्य फेसबुक पर आम हो गए हैं। कुछ मित्र इन हिंसक
दृश्यों को इस्लाम के हिंसक चेहरे के नाम पर लगातार शेयर कर रहे हैं। मुझे
नहीं पता कि वे ऐसा इराक की निरीह जनता और बच्चों के प्रति गहरी संवेदना के
चलते कर रहे हैं, इराक की समस्या को फेसबुक के माध्यम से सुलझाने के
दिवास्वप्न के चलते कर रहे हैं, या इस बहाने इस्लाम की तुलना में हिन्दू
धर्म को श्रेष्ठ साबित करने में जुटे हैं पर इन हिंसक दृश्यों को देखकर मुझ
जैसे अनेक लोग विचलित हो रहे हैं। ये हमारे समाज को हिंसक बनाने का एक नया
तरीका है। क्या यथार्थ चित्रण के नाम पर संवेदनाओं से खेलना उचित है? क्या
इन दृश्यों को वे अपने बच्चों और घर की महिलाओं को दिखा सकते हैं? यदि
नहीं तो आप सभी से गुजारिश है कि अपने समाज की भावनाएं कोमल बनी रहने दें।
हम अपने देश को इराक नहीं बनाना चाहते। इकबाल का शेर उन आतंकियों पर सटीक
बैठता है-
"तुम्हारी तहजीब अपने खंज़र से ख़ुदकुशी करेगी,
शाखे-नाज़ुक पे जो आशियाँ होगा, नापायेदार होगा।"
"तुम्हारी तहजीब अपने खंज़र से ख़ुदकुशी करेगी,
शाखे-नाज़ुक पे जो आशियाँ होगा, नापायेदार होगा।"
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