मध्यप्रदेश
के उत्तरी भाग में होने के कारण ग्वालियर बारिश के मामले में पिछड़ जाता
है। बंगाल की खाड़ी का मानसून बगल से निकल कर दिल्ली तक पहुंच जाता है और
ग्वालियर वासी अच्छे दिन की राह तकते रहते हैं। अरब सागर के मानसून का
लोटा ग्वालियर तक आते - आते खाली हो जाता है। अत: जब भी 'म.प्र. में बारिश
का तांडव' इत्यादि शीर्षक से छपी खबरें पढ़े, तो उसमें से ग्वालियर को
हटाना न भूलें। पिछले 14 साल से ग्वालियर
में हूं, पर बारिश का तांडव नहीं देखा। यहां के लोगों से पूछो तो सगर्व
कहते हैं कि हमारे बचपन में तो 5 - 7 दिन की झिर लगती थी, अब नहीं लगती।
वजह एक ही है- जंगलों की कटाई। पास के शिवपुरी के जंगलों से बाघ को गायब
हुए वर्षों हो गए, सोनचिरैया कई साल से नहीं दिखी है, मुरैना के मोर कम हो
रहे हैं, आसपास नज़र दौडायें तो बबूल की झाड़ियां हीं नज़र आती हैं, फलदार
वृक्ष न के बराबर हैं। जुलाई में भी सूरज देवता इतने प्रसन्न रहते हैं कि
हरा जामुन ठुर्रा कर सीधा पीला हो जाता है, उसे बारिश से फूलकर बैगनी होते
नहीं देखा। हो भी जाये तो जामुन का आकार कंचे के बराबर ही होता
है।........................... . बारिश के तांडव की राह तकता सूखा मन
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