Saturday, 19 July 2014

राष्‍ट्रवाद बनाम मानवतावाद

यह दौर भले ही वि‍श्‍व भर में राष्‍ट्रवाद के उभार का दौर है। राष्‍ट्रवाद को लेकर सभी की अपनी - अपनी अवधारणा है। मेरी भी है। राष्‍ट्रवाद की सोच भले ही व्‍यक्‍ति‍ और समाज से एक पायदान ऊपर है परंतु अंतत: कहीं न कहीं ये संकुचि‍त वि‍चारधारा ही है। भीष्‍म पि‍तामह इसी राष्‍ट्रवाद के मोह में दुराचारि‍यों का साथ देते रहे। महाराणा प्रताप का राष्‍ट्रवाद मेवाड़ तक सीमि‍त था और अगल - बगल के भारतीय राजपूत भी उनके शत्रु थे। भारतवासि‍यों का राष्‍ट्रवाद उन्‍हें भारत को वि‍श्‍वगुरू बनने का स्‍वप्‍न दि‍खाता है। तो इज़राइल और फि‍लि‍स्‍तीन वासि‍यों की अपने राष्‍ट्र को सर्वोपरि‍ मानने की अपनी धारणा है। अत: जब सारे भेद खुल चुके हैं और सारे हालात हमारे सामने हैं, मैं ऐसी कि‍सी भी अवधारणा के साथ नहीं हो सकता जो स्‍वयं को, अपने परि‍वार, अपनी जाति‍, अपने क्षेत्र, अपने समाज, अपने प्रदेश, अपनी भाषा, अपने राष्‍ट्र को सर्वोपरि‍ मानती हो। ऐसी श्रेष्‍ठता कि‍स काम की कि‍ मनुष्‍य की पीड़ा ही दि‍खायी न दे। मैं लखनऊ और बंगलौर के बलात्‍कार से भी उतना ही आहत होता हूं जि‍तना गाजा में एक हिंसक तंत्र द्वारा भाेलेभाले नागरि‍कों की हिंसा से। मैं ऐसा भारत नहीं चाहता जो अपने आस-पास के राष्‍ट्रों एवं गरीब राष्‍ट्रों का शोषण करे। अत: राष्‍ट्रवाद से कहीं बढ़कर है ''मानवतावाद''। मनुष्‍य को बचाओ, राष्‍ट्र अपनेआप बच जायेगा।

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