Sunday, 6 July 2014

चमत्‍कार को नमस्‍कार

'चमत्‍कार को नमस्‍कार' काफी प्रचलि‍त कहावत है हमारे समाज में। स्‍वयं को परंपरागत सनातनी तो नहीं मानता, क्‍याेंकि‍ वैसा आचरण नहीं है। परंतु शंकराचार्य - सांई वि‍वाद के चलते कुछ प्रश्‍न हैं जो मन में उठ रहे हैं -

1. यदि‍ सांई सर्वधर्म समभाव के प्रतीक हैं तो सांई के मंदि‍र को 'मंदि‍र' ही क्‍यों संबोधि‍त कि‍या जाता है, सांई मस्‍जि‍द, सांई चर्च, सांई जि‍नालय या सांई गुरुद्वारा क्‍यों ? सांई भक्‍त कोई नया नाम क्‍यों नहीं गढ़ लेते?
2. सांई को यदि‍ सूफी माना लि‍या जाये तो उनकी सर्वधर्म समभाव या हिंदु - मुस्‍लि‍म एकता संबंधि‍त रचनायें कहाँ हैं?
3. हिंदू और मुस्‍लि‍म भक्‍त होने मात्र से क्‍या उन्‍हें सूफी कहा जा सकता है? यदि‍ हां तो क्‍या नि‍र्मल बाबा को सूफी संत कहा जा सकता है?
4. सांई के दर्शन या मत को प्रति‍पादि‍त करती हुई रचना कौन सी है? या केवल चमत्‍कार ही भक्‍ति‍ का अाधार है?
5. यदि‍ चमत्‍कार ही भक्‍ति‍ का आधार है तो क्‍या सांई भक्‍त 100 साल बाद नि‍र्मल बाबा या जादूगर पी.सी.सरकार को भी इसी तरह पूजने लग जायेंगे?
6. सांई की प्रति‍मा पारंपरि‍क हिंदु देवी देवताओं के मध्‍य स्‍थापि‍त करना कहां तक जायज है? क्‍या ऐसा मस्‍जि‍द, चर्च या गुरुद्वारा में कि‍या जा सकता है?
7. बेचारे सांई बाबा जि‍न्‍होंने पूरा जीवन फक्‍कड़ी में गुजारा, उन्‍हें चांदी की प्रति‍मा और सोने का मुकुट लगाना क्‍या उनका अपमान नहीं है?

न ही परंपरागत हिंदू हूं, न सांई बाबा का वि‍रोधी , पर शंकराचार्य के कुछ प्रश्‍न जायज लगते हैं। मुझे ज्‍यादा समस्‍या 'अंध भक्‍तों' और धर्म स्‍थलों से जुड़ी व्‍यावसायि‍कता से है।

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