बात उस समय की है जब मैं इलाहाबाद में बी ए की पढाई कर रहा था। मेरे मामा जब भी सपरिवार बाहर जाते उनके दुमंजिले एकांत घर को ताकने की जिम्मेदारी मेरी होती थी। जाड़े की शांत रात को मैं सो रहा था कि कुछ अजीब सी सरसराहट की आवाज़ों ने मेरा ध्यान खींचा जो घर के ऊपरी भाग से आ रही थी। कुछ देर तक मैंने उपेक्षा की। फिर निरंतर आती सरसराहट से मुझे चोरो के होने का अंदेशा हुआ। भूत का विचार नहीं आया क्योंकि तब तक वैचारिकता मस्तिष्क में प्रवेश पा चुकी थी। मैं टॉर्च और डंडा उठा कर ऊपर पहुंचा। ताले सलामत थे। ठीक से पड़ताल की। आवाज़ भी खामोश। नीचे आकर फिर लेट गया। 05 मिनट बाद फिर से वैसी ही आवाज़। फिर ऊपर गया, आवाज़ बंद। ऐसा एक दो बार और हुआ। तब मन में "भूत" का विचार कौंधा क्योंकि बचपन से हर बच्चे के दिमाग में यह कचरा भर ही दिया जाता है। कहने में संकोच नहीं कि एकाएक रोंगटे खड़े हो गए। जाड़े की रात में पसीना आ गया। इलाहाबाद में पूज्य प्रो. ओ. पी. मालवीय एवं अन्य अग्रजों की कृपा से तब तक नास्तिकता एवं तर्कशीलता से परिचय हो चुका था। कुछ देर तक असमंजस में रहने के बाद ये निश्चय किया कि ये अनुभव भी ले ही लिया जाए। फिर सीढ़ी चढ़ कर ऊपर पहुंचा। फिर सन्नाटा। इस बार मैंने वही रुकने का निश्चय किया। मैं दूसरी मंजिल पर जा रही सीढ़ियों पर चुपचाप बैठ गया। बस 05 मिनट बाद ही वही सरसराहट बगल के कमरे से सुनाई दे गयी। मैंने तुरंत कमरे की बत्तियाँ जला दी। और जो नज़ारा देखा उसे देख देर तक हँसता रहा और राहत की सांस ली। हुआ यूँ कि एक चुहिया "चिप्स" के पैकेट को कुतरने की कोशिश कर रही थी। और चिप्स पैकेट के सरकने से निरंतर ध्वनि हो रही थी। और इतनी ध्वनि जाड़े की रात के सन्नाटे को चीरने के लिए पर्याप्त थी। ये घटना मेरे लिए ज़िन्दगी भर का सबक बन गयी।
Tuesday, 16 June 2015
सन्नाटे को चीरती सनसनी
बात उस समय की है जब मैं इलाहाबाद में बी ए की पढाई कर रहा था। मेरे मामा जब भी सपरिवार बाहर जाते उनके दुमंजिले एकांत घर को ताकने की जिम्मेदारी मेरी होती थी। जाड़े की शांत रात को मैं सो रहा था कि कुछ अजीब सी सरसराहट की आवाज़ों ने मेरा ध्यान खींचा जो घर के ऊपरी भाग से आ रही थी। कुछ देर तक मैंने उपेक्षा की। फिर निरंतर आती सरसराहट से मुझे चोरो के होने का अंदेशा हुआ। भूत का विचार नहीं आया क्योंकि तब तक वैचारिकता मस्तिष्क में प्रवेश पा चुकी थी। मैं टॉर्च और डंडा उठा कर ऊपर पहुंचा। ताले सलामत थे। ठीक से पड़ताल की। आवाज़ भी खामोश। नीचे आकर फिर लेट गया। 05 मिनट बाद फिर से वैसी ही आवाज़। फिर ऊपर गया, आवाज़ बंद। ऐसा एक दो बार और हुआ। तब मन में "भूत" का विचार कौंधा क्योंकि बचपन से हर बच्चे के दिमाग में यह कचरा भर ही दिया जाता है। कहने में संकोच नहीं कि एकाएक रोंगटे खड़े हो गए। जाड़े की रात में पसीना आ गया। इलाहाबाद में पूज्य प्रो. ओ. पी. मालवीय एवं अन्य अग्रजों की कृपा से तब तक नास्तिकता एवं तर्कशीलता से परिचय हो चुका था। कुछ देर तक असमंजस में रहने के बाद ये निश्चय किया कि ये अनुभव भी ले ही लिया जाए। फिर सीढ़ी चढ़ कर ऊपर पहुंचा। फिर सन्नाटा। इस बार मैंने वही रुकने का निश्चय किया। मैं दूसरी मंजिल पर जा रही सीढ़ियों पर चुपचाप बैठ गया। बस 05 मिनट बाद ही वही सरसराहट बगल के कमरे से सुनाई दे गयी। मैंने तुरंत कमरे की बत्तियाँ जला दी। और जो नज़ारा देखा उसे देख देर तक हँसता रहा और राहत की सांस ली। हुआ यूँ कि एक चुहिया "चिप्स" के पैकेट को कुतरने की कोशिश कर रही थी। और चिप्स पैकेट के सरकने से निरंतर ध्वनि हो रही थी। और इतनी ध्वनि जाड़े की रात के सन्नाटे को चीरने के लिए पर्याप्त थी। ये घटना मेरे लिए ज़िन्दगी भर का सबक बन गयी।
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