उसके मुख्य अंगों पर ही एक नज़र सानी करने से बात साफ हो जाएगी कि भक्ति का मतलब है - आप भगवान (या उसके प्रतीक, चिह्न, मूर्ति या चित्र) के साथ वैसा बर्ताव करें, जैसा किसी बेहद प्रिय व्यक्ति, अतिथि या स्वामी के साथ करते हैं यानि धूप, दीप, नैवेद्य, तिलक, चरण प्रक्षालन (चरणामृत) आदि के द्वारा सुवासित माहौल में उसका स्वागत करें, फिर उसे स्वादिष्ट चीजों के भोग लगायें, हो सके तो उसका श्रृंगार करें और उसे सुंदर वस्त्र भेंट में दें और भी निकटता जाहिर करनी हो, तो उस जैसे वस्त्र स्वयं धारण कर लें और उसके व्यवहार का अनुकरण करें। यानि स्वांग या रास रचायें। फिर उसे रिझाने के लिए मधुर वचन बोलें, उसकी तारीफ यानि स्तुति करें। इसके अलावा उसकी आरती करके उसकी परिक्रमा करें जिसका मतलब यह है कि हमारे लिए - जहां तक हम घूमते विचरते हैं - उसके केन्द्र में सिर्फ वह है और इतना पर्याप्त न लगे तो उसी के साथ रहें और सहवास या शयन तक करें। ( एक मेक ह्वे सेज न सोवै, तब लग कैसा नेह रे) स्पष्ट है कि भक्ति के ये जितने अंग-प्रत्यंग, रूप या व्यवहार हैं, वे मूलत: दास-दासियों के, स्वामियों के लिए खुद काे भोग वस्तु बना देनेे वाले व्यवहार हैं। इनमें 'बराबरी वाली भागीदारी' वाला अर्थ कहां और किस रूप में मौजूद है - इसका खुलासा किए बिना, यों ही खुद तय किए गए अर्थों को भक्ति पर आरोपित करना, कहां तक उचित है?
भक्त की ओर से तो भक्ति दास्य भाव वाली ही होती है, परंतु भगवान की ओर से कृपा के प्रदर्शन के रूप में सख्य, मैत्री, प्रेम, करुणा और संकट निवारण जैसी बहुत सी आश्वासनमूलक अथवा आदर्शीकृत बातें, उम्मीदों की हकीकत बन जाने की तरह, जरूर घट सकती हैं। ...................................
वर्तमान साहित्य के मार्च 2015 अंक में प्रकाशित विनोद शाही के आलेख ''भक्ति : वर्चस्वी वर्गों की विचारधारा का सांस्कृति स्रोत'' का अंश
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